दरअसल, हमारी सरकार द्वारा लागू मौजूदा पंचायती राज पूरी तरह विकृत और समाजतोड़क है। राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने गांव के भीतर तक घुस कर परिवारों में फूट डाल दी है। पत्नी प्रधान है और उसके नाम पर पति सारे कामकाज करता है। गाँव में विकास कार्य के नाम लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं, मगर गाँव में कानोंकान किसी को खबर नहीं लगती। प्रधान जी बीडीओ के साथ मिल कर कागजी खानापूरी कर देते हैं। इस पंचायती राज को बदलने के बारे में बातचीत न होती हो, ऐसा नहीं है। खूब बहस की जाती है। लेकिन बदलाव का मतलब छिटपुट जोड़-घटाने से ही लगाया जाता है। यहाँ दाग-धब्बे मिटा दो, वहाँ थोड़ा रंग लगा दो। मौजूदा पंचायत कानून में इसे लेकर एक बहुत बड़ी खामी है कि ‘पंचायत ग्राम सभा के सुझावों पर विचार करेगी पर इन्हें मानने के लिये बाध्य नहीं है।’ यह बात हास्यास्पद और अत्यन्त आपत्तिजनक है। लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी होती है। पंचायतें ग्राम सभा के नियंत्रण में, उसके निर्देशों के अनुरूप काम करें और उसके प्रति पूरी तरह जवाबदेह हों। ग्राम प्रधान पंचायत का कार्यकारी अंग मात्र हो और पंचायत सचिव से लेकर जिलाधिकारी तक तमाम कर्मचारी-अधिकारी सिर्फ सहकारी की भूमिका में हों। ग्राम सभा के अधिकार क्षेत्र में उनका कोई दखल न हो। ग्राम गणराज्य की सफलता के लिये यह दूसरी शर्त है।
इसके आगे का रास्ता 1992 में किये गये संविधन के 73 वें संशोधनों ने काफी हद तक साफ कर दिया है। संविधान की 11वीं अनुसूची में ग्राम सभाओं के लिये 29 ऐसे विषय रखे गये हैं, जिन्हें वे कर सकते हैं। अर्थात अब यदि मौका दिया जाये तो पंचायतें कृषि, भूमि विकास, लघु सिंचाई, पशुपालन, दुग्ध उद्योग, मत्स्यपालन, लघु उद्योग, ग्रामीण आवास, सड़क, पुल, जलमार्ग, विद्युतीकरण, गैरपारम्परिक ऊर्जा, गरीबी उन्मूलन, माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, हाट-बाजार, महिला और बाल विकास, समाज कल्याण, सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे तमाम कार्य कर सकती हैं। इन संशोधनों में यह भी व्यवस्था है कि प्रत्येक राज्य का एक वित्त आयोग होगा, जो यह तय करेगा कि पंचायतों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिये राज्य को प्राप्त राजस्व का कितना हिस्सा पंचायतों को दिया जाये। यानी राज्य सरकार में समुचित इच्छाशक्ति हो और राज्य वित्त आयोग ठीक समझता हो तो राज्य की कुल प्राप्तियों का साठ प्रतिशत सीधे पंचायतों को दिया जा सकता है। यदि पंचायतों को 11वीं और 12वीं अनसूची में वर्णित सभी विषय सौंप दिये जायें और राज्य वित्त आयोग पर्याप्त धन उपलब्ध करा दे तो फिर अधिकांश काम स्थानीय स्तर पर हो जायेंगे और राज्य स्तरीय भीमकाय निगमों और विभागों की जरूरत ही खत्म हो जायेगी। जब स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली, पानी की व्यवस्था पंचायत को करनी है तो भी फिर भारी भरकम विभागों की जरूरत भी समापत हो जायेगी। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि देश के केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में स्थानीय जश्ररतों के मुताबिक पंचायतों को अधिकार दिये हैं। उसके परिणाम को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जिस काम को पंचायतें 4 करोड़ में करती हैं उसे जिला विकास विभाग 30 करोड़ में करता है।
केन्द्रीकृत विकास का जो ढांचा देश में में ना है वह इसे होने नहीं देता। नेता, अफसर, ठेकदार का एक बड़ा गठजोड़ है जो इसे कभी होने नहीं देता। भ्रष्टाचार तभी फलता-फूलता है जब चीजें केन्द्रीयकृत होती हैं और जनता से जुड़े सारे निर्णय और क्रियान्वयन जनता से छिपा कर किये जाते हैं। जब ग्राम सभा में गांव के सब लोग मिल कर यह तय करंेगे कि उसे साल भर का जो एकमुश्त बजट राज्य वित्त आयोग की संस्तुति पर राज्य सरकार से मिला है, उसमें से कितना स्कूल के लिये खर्च करना है, कितना अस्पताल के लिये, कितना सड़क के लिये और कितना बिजली के लिये और ग्राम सभा के निर्देश पर जब पंचायत यह काम करवायेगी तो चोरी-चकारी के लिये गुंजाइश ही कितनी रह जायेगी!
जिस ग्राम गणराज्य की बात की जा रही है वह गांव के लोगों की संवैधानिक सहभागिता पर आधारित है। अब तक की व्यवस्था में तो ग्राम प्रधान विकास के पैसे का इस्तेमाल इस तरह करता है कि उसके ऊपर के अधिकारी संतुष्ट हो जायें बस। जनता का कोई नियंत्रण उस पर होता नहीं। जिस पंचायती राज से ग्राम स्वराज की बात होनी चाहिए उसे जनता को संतुष्ट करना होगा। जब ऐसा होगा तो जनता निश्चित रूप से अच्छी सड़के और मजबूत भवन बनायेगी। अगर गांव के डाॅक्टर क और शिक्षक को ग्रामसभा स्तर से नियुक्ति और वेतन लिमेा तो वह भी गांव में रहेगा क्योंकि उस पर ग्रामसभा का नियंत्रण रहेगा। राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री जब स्वीकार किया था कि विकास के लिये जो एक रुपया दिल्ली से चलता है, वह गांव तक पहुंचते-पहुंचते पन्द्रह पैसे रह जाता है तो इसका अर्थ यही था कि दिल्ली से गांव तक पसरी हुई नौकरशाही की अनेकों पर्तें नेताओं और माफियाओं की मदद से इस पैसे को सोख लेती हैं। जिस पंचायती राज व्यवस्था की बात की जा रही है उससे ये पर्तें खत्म हो जायेंगी और समूचा एक रुपया सीधे गांव तक पहुंचा दिया जायेगा तो उसके दुरुपयोग होने की संभावना भी समाप्त हो जायेगी। ‘ग्राम सरकार’ का मतलब यह भी है कि वह वित्तीय अधिकार से संपन्न हो उसे राज्य या केन्द्र से मिलने वाले पैसे को अपनी जरूरतों के आधार पर खर्च करने की स्वतंत्रता हो, इससे वह अपनी जरूरतों के हिसाब से प्राथमिकता भी तय कर सकते हैं।
विकास की जिस परिभाषा को गढ़ दिया गया है। माना जाता है कि सड़क और निर्माण कार्य ही विकास है, यह बहुत अधूरी बात है। पंचायतें यह भी तय करें कि उसकी सीमा के भीतर प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किस तरह हो। उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों जिस पर पहला अधिकार ग्रामीणों को होना चाहिए लगतार उनके हाथ से जा रही हैं। गांव से बहने वाली नदी का चुगान गांव की प्रचायत करे। उससे जो राजस्व आता है वह गांव के विकास पर खर्च हो। सरकार को उसकी जो रायल्टी देनी है वह ग्रामसभा तय करे। सरकारें प्राकृतिक संसाधनों पर मनमाने दैत्याकार परियोजनायें बनाती हैं। बड़े बांध बनाती है। उसके लिए विस्थापन करती है। पंचायती राज में यह स्पष्ट व्यवस्था होनी चाहिए कि ग्रामीण तय करें कि उनके गांव में बहने वाली नदी में किस तरह की परियोजना बननी चाहिये और उसमें गांव की क्या हिस्सेदारी होनी चाहिए। छोटी पन बिजली परियोजनाओं का बनाकर न्याय पंचायत स्तर पर उन्हें चलाया जा सकता है। इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा और विस्थापन भी हनीं होगा। वन्य जीव विहार और बड़े उद्योग लगाकर लोगों को विस्थापन का नोटिस पकड़ाने वाले प्रशासन पर नियंत्रण सशक्त पंचायतें ही कर सकती हैं। उत्तराखंड के हर गांव से शराब के खिलाफ आवाज उठती रही है। सरकार उनकी आवाज सुनने की बजाए उसे राजस्व का माॅडल बताकर और अधिक शराब की दुकानें खोल देती है। यदि ग्राम पंचायतें मजबूत होगी तो वह शराब की दुकानें खोलने और न खोलने का फैसला ले सकती हैं। केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पंचायतें काफी मजबूत हैं। केरल के प्लाचिमाडा गांव का जिक्र यहां किया जा सकता है। जब वहां के ग्रामीणों ने पाया कि कोकाकोला के प्लाण्ट से उनका भूगर्भीय पानी कम पड़ गया है और प्रदूषित भी होने लगा है तो पंचायत ने अपने अधिकार का प्रयोग कर प्लाण्ट को बन्द करवा दिया।
एक महत्वपूर्ण मुद्दा पंचायतों को न्यायिक अधिकार देने का भी है। गांवों में हालांकि अपनी एक पंरपरागत न्याय व्यवस्था रही है, लेकिन औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के पदचिन्हों पर चल रही आजाद भारत की सरकार द्वारा पंचायती न्याय को कोई मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन बावजूद इसके अनेक स्थानों पर वह अब भी प्रभावी रूप में कार्य करती है। ग्राम गणराज्य की सफलता के लिये पंचायत के फैसलों को कानूनी मान्यता देना बहुत जरूरी है। जब सामान्य व्यक्ति को मालूम होगा कि पंचायत केवल विकास के पैसे का तीन-तेरह करने वाली संस्था नहीं है, उसके घर की, खेत की, जिन्दगी की समस्याओं का समाधन भी वह करती है तो पंचायत में उसका विश्वास भी बढ़ेगा और भागीदारी भी। पंचायतों को ऐसे अधिकार देने से अदालतों में मुकदमों की भीड़ भी कम होगी।
फिलहाल, उत्तराखंड में आसन्न त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के बीच यह बहस तेज होनी चाहिए कि अधिकार संपन्न पंचायतें बनाकर गांवों विकास के विकेन्द्रीकरण का माॅडल बनाया जाये। गांवों के अंदर बिना अधिकारों से चुनी जा रही पंचायतों में भ्रष्टाचार की विषबेल का तभी समाप्त किया जा सकता है जब उसे भ्रष्ट अफसरशाही और केन्द्रीकृत व्यवस्था से मुक्ति मिले। नहीं तो लोग आने वाले दिनों में भी ऐसे ही मीम्स बनायेंगे, जिसमें वह सरकारों और भ्रष्ट व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने की बजाय अपने बीच के ग्राम प्रधान को दुनिया का सबसे भ्रष्ट व्यक्ति मानने लगेगा। इसे इस छोटी सी कहानी से समझा जा सकता है- ‘एक गांव में लड़के की शादी हुई। शादी के बाद उसकी मां पूरे गांव में कहती फिरती थी कि मेरा बेटा बहुत अच्छा था, जब से बहू आई है बिगड़ गया है। सारी कमाई बहू को देता है। उसकी पत्नी भी गांव में कहती फिरती थी- ‘मेरा पति क्यों मुझे ब्याह कर लाया, वह अपनी मां की ही सुनता है, मुझे तो कुछ देता ही नहीं।’ बेरोजगार लड़के ने न तो मां को कुछ दिया था और न पत्नी को। लेकिन गलतफहमी पूरे गांव में है।’ अब सरकारें कहती हैं कि हमने पंचायती राज दे दिया, लोग कहते हैं कि सबकुछ ग्राम प्रधान खा गया। सही बात यह है कि न अधिकार संपन्न पंचायतें आई हैं और न ही अकेले ग्राम प्रधान ने पैसे खाये हैं। इसमें बड़ा झोल है, इसे समझना ही पंचायती राज को सही दिशा में ले जाना होगा।