जीवन संपदा और पर्यावरण
संपादन – अनुपम मिश्र
प्रकाशन – ज्योतिलोक प्रकाशन, दिल्ली
समीक्षा – विपिन जोशी
पुस्तक में है – देश के पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों का विशद और विविण भण्डार खतरें मंे हैं। पीढ़ियों से संरक्षित अनुवंशकों का भी क्षय हो चला है। इस जीवन संपदा के संवर्धन में जो कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, वे समाज और इस संपदा को जोड़ने के बदले और अधिक तोड़ रहे हैं। जो देश खुद सोन-चिरैया कहलाता था, उसका सोन जो लुट ही रहा है, कहीं चिरैया के उड़ जाने के दिन भी न आ जाएं।
शिकारियों और संवर्धकों के बीच बहस जारी है और तेजी से बढ़ रहे अभ्यारण भय फैलाने लगे हैं। संवर्धन के ऐसे प्रयास न तो जंगल के राजा के हित में होंगे, न गांव की प्रजा के। पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों के नष्ट हो जाने का वैसा खतरा नहीं है, लेकिन वनों के कुछ अछूते टुकड़े या विशियट भाग निश्चित ही खतरे में हैं। अक्सर ऐसे टुकड़ों में बहुमूल्य प्रजाजियों की भरमार होती है। हम आज तक हरी क्रान्ति के नुकसान-लाभ की कोई बहस भी नहीं चला पाए हैं कि उधर हमारे देशी बीजों की नींव पर एक और भायानक का्रंति का साया मंडराने लगा है।
पहला चैप्टर – जीवन संपदा
विविध प्रकार के पौधों और पशुओं का एक अनन्य संसार उनके अनुवंशक तत्व -जीन, का भी क्षय हो रहा है इसके पीछे के कारणों में आर्थिक विकास का नया माॅडल प्रमुख है। भारतीय कृषि शोध संस्थान के निदेशक डा. एच के जैन के अनुसार हमारे देश के किसान 30,000 से ज्यादा किस्म के धान उपजाते थे। लेकिन उन्नत किस्मों के प्रचलन के बाद ये देशी बीज लुप्त हो गये। इस सदी के अंत तक 50 किस्में ही बचेंगी। समाज के लिए यह चिंता का विषय है। आगे जिक्र आता है जीवन संपदा को बचाने के सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों के प्रयासों का ये प्रयास जिस तरीके से लागू किये जा रहे हैं वे तो जीवन संपदा को तबाही की ओर ले जाने का मार्ग प्रसस्त करते हैं।
क्या है अनुवंशक संपदा ? आइये जानते हैं –
पौधों और पशुओं में एक आश्चर्यजनक विविधता है। अनुमान है कि दुनियां में सिर्फ धान के 20000 प्रकार के पौधे हैं। यह सिर्फ एक वैज्ञानिक अटकल है, हो सकता है इससे भी कहीं ज्यादा प्रकार के पौधे हों। यह विविधता जिसे वैज्ञानिक अनुवंशक भण्डार कहते है आज खतरें में है। इससे हमारे जीवन का आधार जुड़ा है। हरित क्रांति इसी संपदा के एक खास तरह के दोहन से जन्मी है। कृषि में सुधार या विकास के नाम पर विविध प्रकार के देसी बीजों की किस्मों को धीरे-धीरे हटाया गया और मार्केट के हवाले कुछ खास किस्म के देशी बीज कर दिये गए। यहां से शुरू होता है अनुवंशक संपदा का दोहन। लेखक ने बहुत ही रोचक तरीके से समझाया है कि हरित क्रांति एक तरह से शेर की सवारी करने जैसा अभियान है। यानी एक बार शुरू कर दी तो हर पांच साल बाद नस्ल निर्माताओं को नई किस्मों को ईजाद करते रहना होगा। क्योंकी पुराने किस्म के पौधे बिमारी के शिकार हो जाते हैं। अब तक के कृषि अनुभव यह बताते हैं कि उन्नत किस्मों ने बंटाधार की किया है जैसे – अनाज के लिए हरित क्रांति, मछली के लिए नीली क्रांति, दूध में श्वेत क्रांति, वनीकरण के लिए एकल पेड़ों का रोपण दुनिया भर में अनुवंशक विविधता के लिए बड़ा खतरा बने हैं।
हमने विकास के नए सोपान भले ही पार किए हो लेकिन कृषि, पर्यावरण, जलचर जीवों का संसार आदि में बहुत संतोषजनक परिणाम नहीं मिल पाए हैं। वन विनाश के धंधों ने पर्यावरण को नुकसान पहॅुचाया है तो जल प्रदूषण से विभिन्न प्रकार की मछलियों और अन्य जलीय जन्तुओं का जीवन और नस्ल प्रभावित हुआ है। इस वैविध्यपूर्ण प्रकृति में कोई भी जीवन बेकार बेमायने नहीं है, सबका अपना महत्व है और किसी भी जीव या वनस्पति का लोप होना दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभाव के लिए ठीक नहीं है। हमारे देश में पेड़ों और पशुओं में अतिशय विविधता है। विश्व के अनुवंशक विविधता में हम 12 वें केन्द्रों में एक हैं। हमारे संपूर्ण पुष्पधन में 45,000 प्रजातियां हैं। इनमें नहीं फूलने वाले पौधों की करीब 30,000 प्रजातियां हैं और फूलने वाले पुष्पों की 15000 प्रजातियां मौजूद हैं। हमारे देश में 7000 पौधों की प्रजातियां ऐसी हैं जो विश्व में और कहीं नहीं पाई जाती। इनमें शामिल हैं हिमालय और मेघालय की खासी पर्वत श्रेणियों में 3000 प्रजातियां तथा दक्षिण में 2000 प्रजातियां। इन आंकड़ों भारत की प्राकृतिक विविधता को महसूस किया जा सकता है।
पेड़-पौधों और पशुओं के वैविध्य पूर्ण संसार से परिचय कराने के बाद किताब राज समाज और पर्यावरण का जिक्र करते हुए पर्यावरण के प्रति राजनैतिक और सामाजिक चेतना का जिक्र करती है। उक्त पाठ की पहली पंक्ति सच से रूबरू कराते हुए कहती है कि जिस राज ने अपने कंधों पर देश के पर्यावरण की रक्षा करने का भार उठा लिया है, उसी के हाथों वह नष्ट भी हो रहा है। यह एक कड़वी सच्चाई है। हमारी सरकारों ने पर्यावरण संरक्षण को साइड में रख आधुनिक विकास के माॅडल को हाथों-हाथ लिया इसमें खनन, बड़े बांधों का निर्माण, सड़कों का जाल, अनियोजित निर्माण कार्य और प्राकृतिक संसाधनों की अकूत लूट और मुनाफे की राजनीति शामिल हैं। पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत से कानून बने हैं, ध्यान देने योग्य बात है कि पर्यावरण रक्षा का सारा भार सन् 1970 में बनाए गए छोटे से पर्यावरण विभाग पर डालकर निश्चिंत हो सकते हैं ? ऐसे कई सारे सवाल यह किताब उठाती है। साथ में समाधान और उपाय भी सुझाती है। गांधी शांती प्रतिष्ठान से जुड़े राजीव वोरा को कोट करते हुए संपादक आगे लिखते हैं कि पर्यावरण विभाग सरकार का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसे सभी विकास गतिविधियों में शामिल होना चाहिए। इस विभाग को सरकारी अनुदानों की रेवड़ी नहीं बल्कि एक कसौटी बनना चाहिए। अतः पर्यावरण विभाग को हर विकास योजना का पर्यापरणीय अवलोकन और आंकलन करने का अधिकार होना चाहिए। ऐसा होगा तो विकास योजनाओं में पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता के लिए रास्ते खुलेंगे।
पर्यावरण और राजनीति पर खुलासा करते हुए किताब में कुछ और तर्कपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। जैसे पर्यावरण का अर्थ बस कुछ सुदंर पेड़ और साफ हवा-पानी नहीं है। हमारे देश में पर्यावरण को बिगाड़ने में पश्चिमी जीवन शैली के विस्तार का बड़ा हाथ है। विश्व बैंक सामाजिक वानिकी के लिए दिए जा रहे भारी कर्जे को ग्यारह वर्ष में ही पाटने का आग्रह क्यों कर रहा है ? पश्चिम की थाली को सजाने के लिए बाकी दुनिया के देश अपना सब कुछ लुटा रहे हैं – अपने लोग, अपनी भूमि, वन, जल, पशु-पक्षी सब इसमें शामिल हैं। दुनिया के अमीर देशों और अमीर लोगों की खुराक भी संकट में हैं और उनका जूठन भी।
सुझाव और समाधान की ओर ध्यान दिलाती किताब आज बहुत प्रासंगिक हो चली है। इसलिए अब सबसे बड़ी चुनौती सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के लिए यही है कि वे जैव संपदा पर आधारित विकास की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करें। जैव संपदा आधारित कोई भी रणनीति विशेषकर स्त्रियों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकती। जैव संपदा की सुलभता से स्त्रियों पर काम का बोझ भी कम होगा और इससे अनेक सामाजिक बदलाव भी होंगे। केरल का उदाहरण देखें तो यहां जैव संपदा का प्रतिशत काफी संतोषजनक है और महिलाओं पर कार्य बोझ भी कम है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यदि देश अपने पर्यावरण को इस स्तर तक हरा-भरा नहीं करता कि वह रोजगार और समानता लाए तो सिर्फ गांवों का ही नहीं, शहरों का जीवन भी नरक हो जायेगा।
शेष आप पढ़िएगा पुस्तक – जीवन संपदा और पर्यावरण में।
विपिन जोशी
Recent Posts
गरुड़ मल्टी लेवल पार्किंग मामला खटाई में : विपिन जोशी
मार्च 11, 2025
कोई टिप्पणी नहीं

यहां कठिनाइयों से गुज़रती है ज़िंदगी
मार्च 4, 2025
कोई टिप्पणी नहीं
네 개의 NFL 라이브 스트림 만우절
मार्च 1, 2025
कोई टिप्पणी नहीं

सफलता के टिप्स देंगे ग्यारह अनुभवी विद्वान शिक्षक
मार्च 1, 2025
कोई टिप्पणी नहीं

महिलाओं के लिए रोज़गार का माध्यम है नया बाजार
फ़रवरी 28, 2025
कोई टिप्पणी नहीं