Vipin Joshi–
उत्तराखंड में पर्यावरण तेजी से बदल रहा है . कभी जलते जंगल तो कभी अचानक तेज बारिश और ओला वृष्टि साथ में बादलों का फटना ये सब हिमालय के लिए ठीक नहीं या कहें कि हिमालयी समाज के लिए ये मुखर होते बदलाव किसी बड़ी आपदा का संकेत हो सकते हैं . विगत एक सप्ताह में भीषण दावाग्नि से राहत जरुर मिली है लेकिन साथ में आकाशीय बिजली और ओला वृष्टि ने गेहूं कि फसल को बहुत नुकसान भी हुआ है . जनपद बागेश्वर के कपकोट में जंगल कि आग एक ट्रक को खाक कर गई तो आकाशीय बिजली से करीब १२० बकरियां मारी गई. वही अल्मोड़ा चनोदा में बादल फटने से ९ मई २०२४ को दिन भर सड़क जाम रही और बिजली कि आपूर्ति भी ठप्प रही.
मौसम का इस तरह मुखर होना एक लम्बी प्रक्रिया का हिसा है. हिमालय के सीने में विकास के जितने घाव किये गए हैं उन सबका हिसाब ये प्रकृति किश्तों में ही सही लेकिन लेकीन लेगी जरुर. हमने कैसा विकास चुना है जिसमे विनाश कि आहाट साफ साफ सुने दे रही है लेकिन हम उस खतरनाक आहात को सुन कर भी अनसुना कर रहे हैं. सूखती दम तोडती नदियाँ, तबाह होते जलते सुलगते जंगल, वन्य जीवों का मानव बस्तियों पर हमला, दरकते पहाड़, खतरे में पड़ती जैव विविधता और पलायन कि चोट से वीरान होते गाँव. इनके साथ हिमालय की कुंद होती परम्परा और चरमराती सामजिक और आर्थिक व्यवस्था जिसमे शामिल है स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था जिसकी हालत पहाड़ में जग जाहिर है . हर मुद्दे के पीछे एक और मुद्दा चिपकता हुआ चलता है. बेरोजगारी, महंगाई, तस्करी, अवैध खनन, नशा, बढता अपराध महिला असुरक्षा, अफसर साही, संसाधनों का दुरूपयोग और बढती असमानता ने हिमालय के सामाजिक ताने बाने को ध्वस्त कर दिया है. इस बात की भनक ऊपर बैठे नेताओं को भी है और नितिनियांताओं को भी है परन्तु निजी हित और मुनाफे की राजनीति ने सम्यक विकास कि दिशा में अवरोध उत्पन्न किये हैं , इसके दोषी हम सब हैं. क्योकि हमारे वोट से हमारा प्रतिनिधि चुना जाता है जो जनता कि आवाज को आगे पहुचाता है. लेकिन ठीक वक्त पर वोट की राजनीति और तमाम तरह के धार्मिक, जातीय धुर्विकरण का माया जाल फेंका जाता है जिसमे फसना सबकी मजबूरी बन जाती है.
यदि उत्तराखंड के हिमालयी समाज को अपना अस्तित्व बचाना है तो सर्वप्रथम इस सुन्दर धरा को और अपने पर्यावरण को बचाना होगा तब नदिया भी जीवित रहेंगी हिमाल भी स्वस्थ रहेगा. नीतिनियंता और माननीयों के लिए तो पंचतारा व्यस्थाएं मौजूद रहती हैं उनको जनता के मूल मूद्दों से क्या लेना देना . जनता को अपने हिस्से कि लड़ाई खुद ही लड़नी होगी और जितनी भी होगी . अभी तक लोकतंत्र में ऐसी व्यवस्था तो है ही आगे राम जाने क्या होगा ? कारपोरेट कल्चर की छाव तले हिमालय का विनाश ही होगा विकास नहीं. हिमालयी समाज का विकास यही की तर्ज पर होगा, अंततः गाँधी का स्थानीयता परक स्वराज माडल ही दुनिया को बचाएगा दूसरा कोई विकल्प फिलहाल मौजूद नही है.