चरखा दिशा टीम के कुछ रचनाकार लगातार देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अपने मन की बात अपने आसपास के मुद्दों को लेकर लिखते रहे हैं. आज उत्तराखंड बागेश्वर के साथियों की ये चार कविताएँ .
क्यों अधिकार छीन लेते हो?
राधा गोस्वामी
कक्षा 11, उम्र 16
गरुड़, उत्तराखंड
गंगा सी शीतल है वो, फूलों सी महकती है वो,
अंधेरी रात में शीतल सी चमकती रोशनी है वो,
बातों में उलझी और कामो में सुलझी है वो,
हंसते मुस्कुराते परिवार को संभालती है वो,
नादान उम्र में खुद बच्चों को पालती है वो,
पराया धन खुद को समझकर,
दूसरों के घर खुशियां लाती है वो,
मनचाहा दहेज न मिलने पर भी,
ससुराल में हर ज़ुल्म सहती है वो,
बेटे के लिए बेटी का हाथ मांगने आते हो,
फिर बेटी होने पर खुशियां क्यों नहीं मनाते हो?
कच्ची उम्र में ही ब्याह रचाकर उसका,
क्यों एक लड़की का भविष्य बर्बाद करते हो?
पढ़ने लिखने का अधिकार उसका भी है,
क्यों ये अधिकार तुम उससे छीन लेते हो?
चरखा फीचर्स
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आगे बढ़ते रहना दोस्त
दिशा
उम्र-17
जगथाना, कपकोट
बागेश्वर, उत्तराखंड
दोस्त ज़िंदगी को आगे बढ़ाते रहना,
दुख हो या सुख हो, हमेशा हंसते रहना,
राह में फूल हों या कांटे हों, बस हारना नहीं,
आगे बढ़ते जाना तुम मगर झुकना नहीं,
उस फूल जैसे बनना, जो देते हर ख़ुशी,
रोज़ चांदनी रात की तरह तुम चमकना,
जिसकी चमक में कभी कोई कमी न हो,
तुम हमेशा हंसते रहना मेरे दोस्त,
खुशियां जग में हमेशा बांटते रहना।।
चरखा फीचर्स
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क्यों लड़कियां बोझ कहलाती हैं?
सरिता आर्य
कक्षा-12
कपकोट, बागेश्वर
उत्तराखंड
मान लिया था मैंने भी कुछ ऐसा कि,
कभी कभी गलतफहमियां हो जाती हैं,
हमारे कानों में भी कभी कभी,
सही बात ग़लत बन जाती है,
पर हर बात सही नहीं होती,
आज मैंने इन कानों से साफ़ साफ़ सुना,
फिर भी मैंने अपने मन को ग़लत चुना,
दिलासा दिया मैंने अपने ही मन को,
होता रहता है ये सब कुछ तो,
मेरे कानों में वो बात आज भी टकराती है,
दुनिया की नज़र में बेटी बोझ कहलाती है,
फिर भूल गई थी कुछ दिन में मैं वो बात,
फिर आज मैं चल ही रही थी कि,
किसी ने निकली यही वो एक बात,
मैंने सोचा क्यों न रोकूं मैं इसे आज,
एक बार तो टोकूं और पूछूं उससे बात,
क्यों बार बार ये एक बात आती है?
क्यों लड़कियां बोझ कहलाती हैं॥
चरखा फीचर्स
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छूट रहे हैं गांव अपने
शिवानी पाठक
उम्र- 17
उत्तरौड़ा, कपकोट
बागेश्वर, उत्तराखंड
छूट रहे हैं गांव अपने,
जा रहे लोग शहरों को,
चलो न फिर से गांव को,
देखो, खेतों में लहराते इन,
धान की सुनहरी बालियों को,
अब न जाने कहां गई वो?
जो खेत हरे-भरे लगते थे,
न जाने उनकी फसल कहां गई?
जहां चिड़ियों के मेले लगते थे,
देखो अब ज़रा गांव की हालत,
जो घर थे पत्थर और मिट्टी के,
न जाने वो कहां खो गए?
हर घर से बच्चों के शोर-शराबे,
अब बच्चे ही न जाने कहां गए?
लौट आओ फिर से उसी छांव को
चले आओ न फिर से गांव को।।
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