विपिन जोशी, गरूड़, बागेश्वर
वर्तमान समय का काला सच क्या है ? जिसके बिना जीवन की कल्पना करना नामुमकिन है। जो न हो तो कुछ ही दिनों में दुनियां हलकान हो जाये। जिसका व्यापार होने लगा है। जिसके लिए क्या पहाड़, क्या मैदान सब जगह धरने-प्रदर्शन होने लगे हैं। मारा-मारी जारी है। वह है जीवन रक्षक जल, जो जल रहा है पल-पल। स्वच्छ जल तो छोड़िये यदि मानव की भोगवादी दृष्टि नहीं बदली तो पानी के लिए तलवारे खिंच जायेंगी, गोलियां चलेंगी। पिछले एक दशक में जिस तरह से दुनियां में मौसम बदला है। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा दिन दूनी रात चैगुनी दर से बढ़ा है उसे देख कर तो समझ सकते हैं कि खतरा बिना आहट के धीरे-धीरे आ रहा है। पानी का बेतहाशा दोहन करने वाले शायद यह भूल चुके हैं कि बिना पानी के जीना सम्भव नहीं है। क्या इन लोगों ने बिना पानी के जीने की कोई विधा सीख ली है, यदि हां तो दुनियां को बता दें। एक और खतरा विकास की आड़ में पसर रहा है। वह है जमीन से उसकी आजादी छीनने का, हरे-भरे जंगलों को काट कर कंकरीट की काॅलोनी बनाई जा रही है। छोटी-मोटी दुकानों से अब काम नहीं चलेगा, तो बड़े माॅल बनाओ। याने विकास को सीधे भौतिक वस्तुओं से जोड़ दिया गया है। भौतिक वस्तुएं होंगी तो विकास होगा, फिर गाॅव के किसी अनुभवी किसान की खेती की समझ और पानी के प्रति उसकी आस्था को दरकिनार करना आसान हो जाता है। आज बड़े बांधों से उत्तराखण्ड जैसे भौगोलिक रूप से संवेदनशील राज्य को पाटने की पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं। ऊर्जा और जल आपूर्ति के नाम पर बनाने वाले बांध भी एक प्रकार की आपदा हैं , बड़े बांधों की आलोचना करने से पहले कुछ अन्य जुड़े हुए मुद्दों पर विचार करना जरूरी है। ग्लोबल वार्मिंग आज दुनियां के लिए चुनौति बन चुका है। इससे निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास जारी हैं पर समस्या कम होने की बजाय साल-दर-साल बढ़ ही रही है। ग्लोबल वार्मिंग के इस शुरूआती खतरे से हम अभी नहीं चेते तो भविष्य में क्या हाल होगा यह कल्पना से परे हैं। धरती के तापमान में हो रही वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। धरती प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से ऊष्मा लेती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरती हुईं धरती की सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर पुनः लौट जाती हैं। धरती का तापमान कई प्रकार की गैसों से मिलकर बना होता है। जिनमें कुछ ग्रीन हाउस गैंसे भी शामिल हैं। ये धरती के ऊपर एक प्रकार से प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और धरती का वातावरण गर्म बना रहता है। प्राणियों और वनस्पतियों के अस्तित्व में बने रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान का होना जरूरी है। जैसे-जैसे धरती के ऊपर बनी परत मोटी होती है वैसे-वैसे वातावरण गर्म होता रहता है। यही से शुरू होता है ग्लोबल वार्मिंग का असर। असल में तो मनुष्य द्वारा की गई हरकतें ही ग्लोबल वार्मिक के लिए जिम्मेदार हैं। अपने भौतिक सुख के लिए मनुष्य ने हर काम के लिए मशीनों का उपयोग करना शुरू कर दिया। इससे पर्यावरण में कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइटा्रेजन आक्साइड इत्यादि ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में बृद्धि होती है। इन गैसों से वायुमण्डल का आवरण और मोटा होता है जो सूर्य की परावर्तित किरणों को रोकता है। जिससे तापमान में लगातार बृद्धि हो रही है। एक ओर वाहनों, बिजली बनाने वाले संयंत्रों, फ्रिज, एसी, आदि के उपयोग से कार्बन डाइआक्साइड में बढ़ोतरी हो रही है तो वहीं दूसरी ओर जंगलों के कटान से भी भयावह समस्या सामने आ रही है। जंगल प्राकृतिक रूप से कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा को नियंत्रित करते हैं, लेकिन इनकी बेतहाशा कटाई से यह प्राकृतिक नियंत्रण भी छूट रहा है। आंकड़ों की माने तो पिछले एक दशक में धरती के तापमान में 0.3 फीसदी से 0.6 डिग्री सेल्सियश की बढ़ोतरी हुई है। आशंका जताई जा रही है कि वातावरण में तापमान वृद्धि का क्रम जारी रहेगा।
ग्लोबल वार्मिंग का असर दुनिया भर में विभिन्न स्तरों में पड़ेगा। संमुद्र तल के बढ़ने से तटीय क्षेत्रों का संमुद्र में विलय तय होगा। परिणाम कितने भयावह होंगे यह सोचना तक कठिन है। इतिहास में पलट कर ना देखें हालिया केदारनाथ आपदा और हिमालयी क्षेत्रों में हो रहे विनाशकारी भूस्खलन इस बात की चेतावनी दे रहे हैं कि विकास का प्रचलित माॅडल विनाशकारी ही होगा। उत्तराखण्ड में प्रस्तावित 429 छोटे बड़े बांधों से भले ही राज्य विद्युत प्रदेश ना बने पर पूंजी को नमस्कार कर रहे एक खास वर्ग को इस बात का लाभ मिलेगा ही। बड़े बाधों का विरोध क्यो ? इससे आम जन के जीवन सन्दर्भ कैसे जुड़ते हैं ? इन सवालों पर सरसरी निगा़ह डालें तो कुछ बातें साफ हो जायेंगी। जैसे – टिहरी बांध को विकास का मंदिर स्थापित किया गया। टिहरी शहर को पूर्णतह जल समाधी लेनी पड़ी। एक समय था जब टिहरी शहर से तमाम आस-पास के गाॅव सहज ही जुड़ जाते थे पर बांध बनने के बाद नरेन्द्र नगर जैसे गाॅवो की दूरी बढ़ती चली गई। कुछ सवाल तो अपनी जगह हैं जैसे वह कौन लोग थे जो टिहरी बांध की जन सुनवाई में शामिल थे ? टिहरी बांध का सबसे ज्यादा लाभ किस वर्ग को मिलेगा ? बांध के आस-पास 45 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में सड़क सम्पर्क की स्थिति क्या होगी ? 45 वर्ग किमी से अधिक क्षेत्रफल में फैले झील से उत्पन्न धंुध का क्या असर यहां के वातावरण में पड़ेगा ? कितने स्थानीय लोगो को ठीक रोजगार मिला ? और भी कई सवाल हैं जो एक बसे बसाये ऐतिहासिक नगर के रसातल में जाने से उठते हैं।
विश्व के जाने-माने पर्यावरणविद सुन्दर लाल बहुगुणा ने बांध के विरोध में लंबा संघर्ष किया। बहुगुणा ने आशंका जताई थी कि हिटरी बांध की उम्र महज 60 साल ही होगी यह बांध गाद भर जाने से नष्ट होगा। इस बात के संकेत भी टिहरी बांध में नजर आने लगे हैं। बड़े बांध किसी भी समाज या देश के हित में कभी नहीं रहे। सरकार में शामिल लोग पूंजी की स्तुति और अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए बड़े बांधों के समर्थक बने रहते हैं। छोटी-छोटी जल धाराओं में कम मेगावाट के पाॅवर प्रोजैक्ट लगाये जा सकते हैं ? जो किसी बड़े भूखण्ड को डूब क्षेत्र बनने से रोक सकते हैं। हजारों की संख्या में विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या न्यूनतम हो सकती है। कौन सा समुदाय अपना घर, खेत, मकान, गाॅव छोड़कर किसी दूसरी जगह में बसना चाहेगा ? जहां सिर्फ दुश्वारियां उसके साथ हो। टिहरी के विस्थापितों का दर्द कौन समझेगा ? अब तो हम दुनियां के नक्शे में शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित हो रहे हैं। विकास के नये प्रतिमान गढ़ रहे हैं। बड़े बांधों के साथ अब टनल डैम का युग है। यानी किसी भी बसे-बसाये गाॅव के भीतर-भीतर सुंरग बनाकर नदी का पानी सुरंग से प्रवाहित किया जायेगा, टरबाईन चलेगा और बिजली बनेगी। ,सुंरग बनाने के दौरान धरती के अन्दर विस्फोट किये जायेंगे, गाॅवों में लोगों के मकानों में दरारें आयेंगी, उनके पानी के स्रोत खत्म हो जायेंगे। ऐसा हुआ भी है उखीमठ-रूद्रप्रयाग के पास रायड़ी गाॅव के नीचे से सुरंग बनाई गई थी । सिंगोली-भटवाड़ी परियोजना के तहत इस परियोजना का बुरा असर गाॅव के घरों में तब दिखा था । तब वहां लोग परेशान थे । पानी के स्रोत भी लगभग ध्वस्त हो चुके थे । लोगों ने आंदोलन भी किये स्थानीय महिला शुशीला भण्डारी की गिरफतारी भी उस दौर में हुई संघर्ष भी हुआ।एक पल के लिए मान भी लें कि बड़े बांध विकास के मंदिर हैं तो भी कुछ सवालों से पीछा नहीं छूटने वाला। बांध से बनने वाली बिजली का कितना भाग स्थानीय समुदाय को मिलेगा ? सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से होने वाले नुकसान की भरपाई कौन सी कम्पनी करेगी ? क्या सरकारें इस दिशा में सोच रही हैं ? टिहरी और नर्मदा जैसे दर्जनों आन्दोलन हैं जो बड़े बाधों के विरोध में सीना तान कर खड़े रहे। लेकिन आन्दोलन विफल क्यों हुए ? कई सारे सवाल हैं जो बड़े बांधों के अस्तित्व पर सवाल दागतें हैं ? विकास के प्रचलित माॅडल पर समाज का एक बड़ा तबका हमेशा आशंका भरे सवाल खडे़ करेगा। क्योंकी प्रकृति को उपभोग की वस्तु समझना विनाश की ओर जाने की तैयारी है। इससे बचने का कोई रेडिमेड तरीका तो किसी के पास नहीं है। अपने-अपने हिस्से का जीवन जी कर लोग अपने स्तर से इस सवाल का सामना भी करेंगे। यदि इससे बचेंगे तो एक दिन यही विकास के प्रतिमान समूचे मानव अस्तित्व के लिए संकट बन जायेंगे। ध्यान रहे नए विकास के क्रांतिकारी माडल से उपजी कोरोना महामारी से अभी तक दुनिया ठीक से उभरी नहीं है दर्दनाक यादें सभी के जहन में जीवित हैं. उत्तराखंड की केदारनाथ आपदा भी नवविकास का भयावह तोहफा था . हमारे सामने दर्जनों उदहारण हैं जो मानव और प्रकृति के संघर्ष से उपजे विनाश की गाथा को प्रस्तुत करते हैं. फिलहाल दुनिया में पानी से उपजे संकट और संघर्ष की चुनौती मुह बाएं खड़ी है . पानी के लिए लड़ाई और पानी के लिए संघर्ष के लोकल किस्से कम वैश्विक हो जाएँ कह नहीं सकते . इसलिए इस गंभीर संकट से निपटने की तैयारिया हर इंसान को अपने स्तर पर करनी होगी, राजनैतिक इच्छा शक्ति पता नहीं कब जागेगी.