दिसंबर के साथ साल 2024 विदाई लेने को तैयार है. वक्त मुट्ठी में कसी रेत की मानिंद फिसल रहा है. लेकिन दूर दूर तक बारिश का नामोनिशा नहीं है. गेहूँ के खेत सूख चुके हैं, नहरों में झाड़ियाँ जमी हुई हैं लिफ्ट योजना के पंप जवाब दे चुके हैं. गेहूँ को पाला यानी तुषार मार देता है यदि समय पर सिंचाई ना हो तो पंप से सिंचाई करना महंगा हो गया है पेट्रोलियम महंगा हुआ तो सिंचाई भी महँगी हो गई. चलिए सिचाईं कर भी दी तो बची ख़ुशी कसर आवारा गाय, बैल और बंदरों ने पूरी कर दी है. बंदर के साथ जंगली सुवरों का आतंक भी खुल कर सामने आ चुका है. बंदरों ने लोगों को गंभीर रूप से चोटिल किया है तो कुछ मामलों में जान भी गवाई है.
किसान दो तरफा मार झेलने को विवश हैं. मौसम, तुषार और सूखे की मार से बचे तो जंगली जानवरों का ख़ौफ़ मुंह बाएं खड़ा रहता है. बंदरों से मुक्ति का कोई उपाय सूझे उससे पहले घर, खेत, रास्ते में गुलदार खड़ा घूरता है. यानी प्रकृति ने हर ओर से दस्तक दी है. चलिए दिसंबर में पिघलते हिमालय को काला पड़ते देख कुछ दुःख कर जैसे ही सभलते हैं तो कागज पत्री के चक्कर आदमी को घनचक्कर बना रहे हैं. हर दस्तावेज का डिजिटलाइजेशन हो गया है उस प्रक्रिया में कागज पाती का काम और मुश्किल हो गया है. आधार कार्ड, जन्म प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, बच्चों का वजीफा, आवास योजना के कागज और भी तमाम तरह के दस्तावेज. आम आदमी के को उलझाए रखने के बहुत अच्छे टूल हैं. सरकार दिखावे के लिए दूर दराज गावों में बहुउद्देशीय शिविर भी लगाती हैं लेकिन इन शिविरों की हकीकत हमको मालूम है, जैसे तहसील दिवस की औपचारिकता को सभी जानते हैं. शिकायत दर्ज तो जाती है परंतु समाधान होता नहीं दिखता.
गुजरते बीतते दिसंबर के आख़िरी सप्ताह में एक नजर इन्फ्रास्ट्रक्चर्स पर भी डाल लेते हैं. सड़क सुरक्षा सप्ताह धूम धाम से मनाया जाता है. लेकिन लंबित पड़ी सड़कों की सुध नहीं ली जाती है. सड़कों का नया डामरीकरण दो सप्ताह में उतर जाता है. आधी अधूरी घटिया सड़कें सड़क सुरक्षा और सुशासन के दावों को खारिज करती हैं .
अब शिक्षा व्यवस्था को देखें तो शिक्षा का बाजारीकरण और माफियाकरण दोनों तीव्रगति से फ़ैल रहा है. प्राइवेट स्कूलिंग विशुद्ध रूप से बाज़ारीकरण में लिप्त है तो वहीं सरकारी शिक्षा व्यवस्था को एनजीओ कल्चर धीरे धीरे घुन की तरह खोखला कर रहा है, सरकार की निजीकरण नीति एक दिन सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर भारी पड़ेगी तब सरकारी शिक्षा में गहरी सेंध लगा चुका एनजीओ कल्चर का सच सार्वजनिक होगा लेकिन क्या कन तब जब चिड़िया चुग गई खेत.
स्वास्थ्य व्यवस्था ख़ुद आईसीयू में बेहाल पड़ी है. ना जाने क्या हो गया है दिसंबर के जाते जाते बहुत जवान अधेड़ आयु वर्ग के लोगों को हृदय घात जैसी बीमारी के चलते दिवंगत होते देखा है. इस बात का गहन विश्लेषण भी कोई कर रहा होगा कि कोविड काल के बाद हृदयघात, ब्रेन हैमरेज जैसे मामलों में कितनी तेजी आई है .
कभी तो अवश्य सच सामने आयेगा इस बात पर भरोसा करने के अलावा जनता के पास कोई दूसरा रास्ता है क्या ? शायद नहीं.
दिसंबर तो चला जाएगा, तारीखें बदलेंगी, मौसम बदलेगा, कौन जाने बदलते बदलते सत्ता भी बदल जाए. इस बात पर भी भरोसा कर ही लेते हैं कि जब कभी सत्ता बदलेगी तो दुःख, अन्याय, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण, महंगाई से राहत मिलेगी, मिलनी तो इनसे मुक्ति चाहिए चलो राहत से भी काम चला लेंगे.
सब कुछ ग़लत और अशुभ तो नहीं घटा किसी के लिए शुभ और अच्छा सुखद भी रहा होगा 2024 तो उनको बधाई ऐसे लोगों का आने वाला कल और सुखद हो, ऐसी दुआ प्रार्थना करते हैं.
मानवीय हस्तक्षेप और अप्रासंगिक विकास नीतियों ने ग्लोबल वार्मिंग को न्यौता दिया जिसके दुष्परिणाम आज साफ़ तौर पर सामने दिख रहे हैं . काला पड़ता हिमालय, बदलता मौसम चक्र ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के असर को भी दर्शा रहा है. ऐसे में भविष्य में बहुत सुखद महसूस होने के संकेत तो नहीं दिखते हैं. सामने भयानक संकट की आहट महसूस होती है.
इसलिए हे दिसंबर 2024, अब तक जो हुआ सो हुआ आगे के लिए हमारे बुद्धिजीवियों, नीतिनियंताओ, राजनीतिक दलों के नेताओं को सदबुद्धि प्रदान करना ताकि अब भविष्य में कोई बड़ी आपदा ना आने पाए. आपदा के बाद पीछे छूट जाती हैं एक टीस, अपनों की याद और बहुत से दुखद एहसास.
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