कौमी एकता और अल्मोड़े का दशहरा
विगत दो दशकों में भारत में हिंदू मुस्लिम तनाव में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि देखने को मिली है। कोविड काल के बाद तो दो संप्रदायों के बीच नफरत की खाई और अधिक फैली है। लेकिन इन तमाम उन्मादी खबरों के बीच उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा से एक अच्छी और सकारात्मक खबर भी आती है। अल्मोड़ा में विगत सौ साल से दशहरा मेला मनाया जाता है। पूरे भारत में अल्मोड़ा की शास्त्रीय संगीत आधारित रामलीला का क्रेज आज तक जारी है। रामलीला शुरू होने से पूर्व अल्मोड़ा के प्रत्येक मौहल्ले में रावण परिवार के पुतले बनाने की शानदार परम्परा कायम है। हिंदू मुस्लिम सब मिलकर पुतले बनाते हैं। दशहरे के दिन पुतलों को शहर में शोभा यात्रा के साथ घुमाया जाता है और स्टेडियम में पुतलों का दहन किया जाता है। अल्मोड़ा के पुतला कलाकार और रंगमंच के खिलाड़ी अख्तर हुसैन ने बातचीत के दौरान बताया कि पहले सिर्फ रावण का पुतला बनाया जाता था, लेकिन अब रावण परिवार के करीब 20 पुतले विभिन्न मौहल्लों में बनाए जाते हैं। अल्मोड़े की रामलीला में महिला पात्रों के लिए समुचित स्थान होता है। मुस्लिम भी कई किरदारों में अपनी भूमिका निभाते हैं। मंचीय प्रदर्शन से इतर पर्दे के पीछे भी कलाकारों की भूमिका होती है। जैसे पात्रों को तैयार करना, दृश्य निर्माण करना, संगीत और प्रोम्टिंग। इन सबसे मिलकर बनती है रामलीला।
पूर्व नगर पालिका अध्यक्षा शोभा जोशी ने बड़े ही उत्साह के साथ अल्मोड़े के दशहरे और दुर्गा पूजा महोत्सव को भारत का अग्रणीय महोत्सव बताते हुए जानकारी दी कि समय के साथ पुलता निर्माण परम्परा में रचनात्मकता बढ़ी है और युवाओं की भागीदारी भी दशहरा में दिख रही है। कौमी एकता का मिशाल है अल्मोड़ा का दशहरा मेला। इस बातचीत के दौरान मैंने कुछ युवाओं से बात की उन्होने बताया कि 15 से 20 दिन तक एक पुतला निर्माण में लग जाते हैं। नंदादेवी समिती के कलाकारों ने बताया कि एक महिना लगता है रावण का पुतला बनाने में। ऐलुमिनियम, अखबार, गत्ता, कॉटन आदि का उपयोग पुतला निर्माण में किया जाता है। स्कूल के बच्चे भी पुतला निर्माण में सहयोग करते हैं। पुतले की साज-सज्जा के लिए मौहल्ले के दुकानदार चंदा भी देते हैं। इस तरह पुतला निर्माण की परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सहजता से पहॅुचती है। किसी समाज या शहर के लिए सौ साल तक निर्विवाद तरीके से दशहरा और रामलीला जैसे सांस्कृतिक समारोह को संचालित करना बड़ी बात है। ऐसे ही तो नहीं कहते हैं अल्मोड़ा को सांस्कृतिक नगरी। पुतला शाभा यात्रा के दौरान बाल बाल प्रहरी पत्रिका के संपादक उदय किरौला से मुलाकात हुई। उदय किरौला ने पुतला निर्माण और दशहरे के बारे में कई रोचक जानकारियां साझा की। किरौला जी फलैशबैक में चले गए कहने लगे कि एक समय था जब हम पराल के पुए से छोटे-छोटे पुतले बनाते थे और बड़े चाव से उनको गॉव में घुमाते थे। लेकिन आज इनते आलीशान जीवंत पुलते यहीं के स्थानीय कलाकार मिलकर बनाते हैं यह एक सुखद बात है।
मैं बाजा़र में घुमते हुए नागरिकों से बात भी कर रहा था और पुतला शोभा यात्रा के दृश्यों को अपने कैमरे के साथ मन में सहेज रहा था। इसबीच अल्मोड़ा के लोकप्रिय नेता मनोज तिवारी और सिकन्दर पंवार, कुंनद लटवाल से भी मुलाकात हुई। सभी की बातों से एक सार निकला कि आपसी भाई चारा और सौहार्दय् ने अल्मोड़े के दशहरे को भारत में एक खास पहचान दी है। देश भर से लोग अल्मोड़ा दशहरा को देखने पहुॅचते हैं। ऐसे आयोजन सांस्कृतिक विरासत के प्रति मन में सम्मान का भाव तो लाते हैं साथ में सामाजीकरण और सदभाव को भी उच्चता प्रदान करते हैं। पूरा दिन अल्मोड़ा नगर सुन्दर पुतलों की शोभा यात्रा से गुंजायमान रहता है तो दुर्गा मां की डोलियां भी भक्ति और आस्था को चरम तक ले जाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। दुर्गा मां की डोलियों के साथ महिलाओं के झुण्ड भजन कीर्तन करते हुए आगे-आगे चलते हैं और चौराहे में झौड़ा गायन के साथ दुर्गा मां के विभिन्न डोलों को स्वागत करते है। उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध छोलिया ंदल अल्मोड़ा दशहरा मेला की रौनक को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तो आधुनिक ढोल ताशे वाले भी बीच-बीच में खूब ताल ठोकते दिखते हैं। एक बात जो थोड़ा खराब लगी वो भी जेब कतरो का आतंक कुछ लोग चौराहे की भीड़ में अपनी जेबें टटोलते भी दिखे। एक बुजुर्ग व्यक्ति ने बताया कि उनकी जेब कट गई है। इस तरह के समारोहों में सीसी टीवी कैमरे बाजार में लगे रहते हैं, पुलिस प्रशासन भी चाक चौबंद रहता है बावजूद इसके चोरी की घटनाएं होती हैं जो अफसोस जनक भी हैं। बहरहाल सांस्कृतिक नगरी के सभी नागरिकों को बधाइयां कि आपने आपसी प्रेम और सहयोग से दशहरा मेला और रामलीला मंचन को देश भर में एक खास पहचान दिलाई है।
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