बुलडोजर राज के खिलाफ एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस गवई और जस्टिस विश्वनाथन ने बुलडोजर राज पर शिकंजा कसा है। किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए न्यायपालिका एक महत्वपूर्ण आधार स्तंभ है। न्याय में दोनों पक्षों को समानता के साथ सुने जाने की परंपरा है। अदालत फैसला सुनाती है उस फैसले में न्याय निहित है। लेकिन विगत एक दशक में सत्ता मद ने न्याय की परिभाषा ही बदल दी। भारतीय सिनेमा जगत ने भी फैसला ऑन द स्पॉट को ही बढ़ावा दिया। कुछ संवेदनशील मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट का निर्णय प्रासंगिक लगता है इसे जल्द लागू भी किया जाना चाहिए। महिलाओं पर नाबालिक बच्चों पर हो रहे दुराचारों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन यह कार्यवाही भी न्यायालय के द्वारा होनी चाहिए। बेलगाम होते अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए और मिलती भी है,माननीय न्यायालय इसी काम के लिए स्थापित है।
लेकिन अपराधों को नियंत्रित करने के लिए हिंसा प्रद बुल्डोजर कहां तक उचित है, जांच न पड़ताल, तथ्य न सबूत, फैसला ऑन द स्पॉट। किसी खास समुदाय को टारगेट करने की नीति और बदले की भावना से जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करना भारतीय न्यायपालिका के न्याय सिद्धांतों के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में बुलडोजर राज पर शिकंजा कसने की तैयारी कर दी है। यह एक स्वागत योग्य कदम है। अपराध की सजा अपराधी को मिलनी चाहिए उसके पूरे कुटुंब को नहीं, यदि अपराध में परिवार शामिल है तो उसकी जांच होनी चाहिए जो अक्सर होती भी है, परंतु कभी-कभी अपराधी की सजा के हकदार उसके तमाम नाते रिश्तेदार बना दिया जाते हैं। जस्टिस गवई और जस्टिस विश्वनाथन ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुवे कहा कि अपराध साबित होने के बाद भी किसी का घर नहीं तोड़ा जा सकता। जुर्म साबित हो जाने के बाद कानून में मुकर्रर सजा अपराधी को दी जाती है। भारतीय न्याय संहिता से ऊपर कोई कानून व्यवस्था नहीं चलती। कोर्ट ने कहा कि हम सारे देश के लिए बुलडोजर राज के खिलाफ एक गाइड लाइन प्रस्तुत करेंगे। कुछ राज्यों में बुलडोजर कानून तेजी से बढ़ रहा है इसकी शुरुआत 2017 में उत्तरप्रदेश से हुई। सीएम योगी को बुलडोजर बाबा नाम से नवाजा गया इसी क्रम में मध्य प्रदेश के सीएम को बुलडोजर मामा का खिताब मिला। 2022 के चुनाव प्रचार में कहा गया कि सरकार के खिलाफ उग्र लोगों को बुलडोजर से शांत कर दिया जाएगा।
क्या बुलडोजर चलाने से पूर्व यह देखा जाता है कि घर किसके नाम से है। प्रयागराज में एक व्यक्ति को दोषी पाया गया और उसका घर तोड़ा गया जबकि घर तो उसकी बीबी के नाम पर था। बुलडोजर कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त आपत्ति जताई है। यह मामला किसी भी सत्ता पक्ष के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है।
राजस्थान, तेलंगाना, मधप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड में दर्जनों उदाहरण हैं जो बुलडोजर कानून की व्यथा कथा सुनाते हैं। उत्तराखंड में अंकिता हत्या कांड की जांच के दौरान उस होटल को ही गिरा दिया जहां हत्या से जुड़े सबूत होने की बात कही जा रही थी। बुलडोजर कानून का उपयोग सत्ता ने अपनी हनक उतारने के लिए किया या न्याय के लिए यह सोचनीय सवाल है।
बदले की भावना से तुरंत प्रभाव से किया गया कार्य न्याय नहीं हो सकता। त्वरित की गई कार्यवाही भावनात्मक प्रतिकार हो सकता है। न्याय में सभी पक्षों, तथ्यों को सुना जाता है, उसके आधार पर सजा सुनाई जाती है। न्याय में बदले की भावना नहीं होती तठस्थता होती है। लेकिन इंसाफ में देरी नहीं होनी चाहिए। फास्ट ट्रैक कोर्ट इसका एक विकल्प है।
घर कब गिराया जा सकता है अलग अलग राज्यों में इसके लिए कुछ नियम लागू हैं। कानून के अनुसार सरकारी जमीन पर गैर कानूनी तरीके से किया गया निर्माण अवैध है इसे कोर्ट के नोटिस के बाद गिराया जा सकता है। नोटिस की समय सीमा दस दिन से एक माह हो सकती है। ताकि मकान मालिक को समय मिले दूसरी जगह शिफ्ट होने का। जैसे मध्यप्रदेश में रूल 12 है, जिसमे दर्ज है कि मकान स्वामी को कानून के तहत घर खाली करने का अवसर मिले। बुलडोजर कानून से व्यक्ति का राइट टू शेल्टर/राइट टू लिव भी प्रभावित होता है, आर्टिकल 19 इस बात का जिक्र करता है। आर्टिकल 21 में भी इसका वर्णन है। कानून तो यह भी कहता है कि बिना उचित नोटिस के किसी रेडी, ठेले वाले का ठिया भी नहीं हटा सकते भले ही वह अवैध ही क्यों ना हो। मानव अधिकार भी आर्टिकल 12 के तहत व्यक्ति के आवास को सुरक्षित रखने की बात करता है, बिना नोटिस के घर का ध्वस्तीकरण कानून के खिलाफ है।
सजा देने का अधिकार सिर्फ जज का है न्यायपालिका का अधिकार है, कार्यपालिका का नहीं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बुलडोजर कानून पर न्यायपालिका का पहरा जरूर लगेगा, अपराधियों को कानून के तहत न्यायपालिका सजा दे। न्याय और बदले के अंतर को समझना होगा।
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