Vipin Joshi
उत्तराखण्ड के कपकोट विधानसभा क्षेत्र में कुछ इलाके खनन के लिए मशहूर हैं. एक यात्रा के दोरान रीमा क्षेत्र में ग्रामिणों से हुई बातचीत के आधार पर और खनन क्षेत्र का व्यापक अवलोकन करने के बाद कुछ महत्वपूर्ण बातें या कहें कि लोगों का आंतरिक दर्द जिसे वे साझा नहीं करना चाहते हैं उजागर हुआ. ग्रामिणों ने नाम और चेहरे को सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर आडियो फाॅर्मेट में ही अपनी बात साझा की है उत्तराखण्ड के संसाधनों के व्यापक लूट की कहानी को बयां करने के लिए हजारों शब्द भी कम होंगे. बागेश्वर जिला मुख्यालय से 40 किमी. की दूरी पर सफेद सोने का भंडार कहा जाने वाला रीमा गाॅव बसा है। सर्पीली कच्ची-पक्की सड़को से गुजरते हुए छोटे बड़े ट्रकों से बचते हुए डेढ़ घंटे का सफर करने के बाद रीमा पहॅुचते हैं। संमुद्रतल से करीब 1600 फीट की उॅचाई होगी रीमा गाॅव की उॅचाई में होने के कारण ठण्डा इलाका है। रीमा के आसपास ज्यादातर चीड़ के जंगल हैं. एक हिस्सा बांज, बुरांश और काफल का थी जिसने इस क्षेत्र के पर्यावरण को संतुलित रखने में अहम भूमिका निभाई है. सीढ़ीदार उर्वरा खेत पानी की ठीक-ठाक मौजूदगी यहां है। प्रथम दृष्टया तो बहुत सुंदर क्षेत्र है।
जैसे-जैसे आप खड़िया खदान से घिरे इस इलाके में आगे बढ़ते हैं तो धूल और पहाड़ का सीना चीरती बड़ी मशीने दिखती हैं जो हिमालयी क्षेत्र में हो रहे संसाधनों के खुले दोहन की गाथा सुनातेे हैं। गाॅव के बिलकुल पास खेतो के नजदीक खदानों का संचालन भविष्य में अच्छे प्रभाव तो नहीं छोड़ेगा। 1990 के दशक से रीमा क्षेत्र में खदानों के पट्टे देने की गति तेज हुई। सुदूर क्षेत्रों में लागों की आवाजाही के लिए रास्ते भले ही न हो तब यहां खड़िया सप्लाई के लिए रोपवे की व्यवस्था की गई थी। चंद पूजीपतियों को मुनाफा दिलाने की नीति तो पहले से चली आ रही है। ग्रामीण कहते हैं कि सड़कों का जाल भी अपने मुनाफे के लिए सरकारों ने बनाया है। ताकी अधिक से अधिक खड़िया खदान से निकाली जा सके और शहर तक पहॅुचाई जा सके। खड़िया का व्यावसायिक उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों के लिए किया जाता है। स्थानीय काश्तकारों ने उम्दा गुणवत्ता के खेतों को लीज पर दे दिया या फिर वे खुद खदानों के
ओनर बन गये। राजनैतिक प्रभाव के चलते कुछ नाम चंद वर्षो में खूब मुनाफा भी कमा रहे हैं। किराये पर अपनी भूमि दे चुके किसानों को बहुत ज्यादा लाभ नहीं मिलता मोटी मलाई तो खदान ओनर काटते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में सत्ता का वरद हस्त खदान मालिकों पर किसी न किसी रूप में रहता ही है.
क्या कहते हैं लोग – खनन का दीर्घकालिक नुकसान तो हमें ही होगा। लेकिन रोजगार कुछ है नहीं तो खड़िया ही हमारे लिए रोजगार का जरिया है। पर्यावरणीय नुकसान तो है ही बरसात में जमीन धंसने का खतरा लगा रहता है, धूल से वातावरण प्रदूषित होता है. आपदा और भूंकप की दृष्टि से जनपद बागेश्वर को जोन 5 में इंगित किया गया है इसका मतबल हुआ कि यह क्षेत्र कभी थी किसी बड़ी आपदा का शिकार हो सकता है ऐसे में पहाड़ों के सीने पर चलती हैवी मशीनें धरती के अंदरूनी कंपन को बढ़ाने का काम ही करेंगे। जितने भी बड़े बांध या टनल बांध या सड़कें उत्तखण्ड में बनी हैं या जहां-जहां भी निर्माण कार्य जारी है उसका साइड इफैक्ट भूधसाव या जमीन दरकने के रूप में विगत कुछ सालों में हम देख चुके हैं। 2013 के केदारनाथ आपदा से भी सरकार ने सबक नहीं लिया और मुनाफे के कारोबार में फिलहाल एक बड़ी लाॅबी लगी हुई है। गरीब किसान जो खदान को लीज पर देते हैं या जो खनन से प्रभावित होते हैं बड़ी ताकतों के खिलाफ कुछ भी खुल कर नहीं बोलते हैं, आर्थिक रूप से समृद्ध हो चुके परिवारों ने तराई में अपना आशियां बना लिया अब उनकी बला से पहाड़. खदान ओनर तो आये ही मुनाफे के लिए हैं स्थानीय पर्यापरणीय असंतुलन का उनके जीवन से क्या जुड़ाव ?
कुल मिलाकर अच्छा नहीं लगता है हरे-भरे जैवविविधता से परिपूर्ण पहाड़ को निर्ममता से खोखला किया जाना। उत्तराखण्ड राज्य की मांग इसलिए तो नहीं की गई होगी. खनन का दंश यूं तो देश के कई राज्यों ने दशकों से महसूस किया है, झेला है. दर्जनों आंदोलन भी समय-समय पर हुए हैं लेकिन अधिकांश आंदोलनों को या तो मैनेज कर लिया गया या फिर वे टूट गये. गिने चुने आंदोलन होंगे जो अपनी क्षेत्रीय अस्मिता को बचाने में सफल हो पाए। मौजूदा दौर में सत्ता की हनक औ
र सरकारी मशनरी के मनमाने उपयोग की घटनाएं चरम पर हैं. लोकतंत्र के मजबूत स्तंभ मीडिया को भी सत्ता ने कमजोर किया है. सवाल प्रतिबंधित है उस पर जेल के दरवाजे और फर्जी केस मुखर पत्रकारों और स्वतंत्र कार्यकर्ताओं के लिए हमेश खुले हैं. अब अंदरूनी खबर तो यह भी है कि वैकल्पिक मीडिया में काम कर रहे न्यूज पोर्टल, यूट्युबर्स पर भी सरकार की टेढ़ी नजर है. यानी सत्ता का जयकारा लगाओं और मौज लो. सवाल करो नौकरी गवाओं. ये सब हम देख चुके हैं, महसूस कर चुके हैं. ऐसे में जनता के मुद्दों को तठस्थता के साथ और बिना किसी लाग लपेट के कौन उठायेगा ? जिन मीडिया कर्मियों पर जनता का यकीन था अब वे साॅफ्ट स्टोरी की ओर रूख कर चुके हैं. खनन, अवैध शराब तस्करी, निर्माण योजनाओं पर खुला कमिशन ये सब मीडिया के राडार से गायब हो चुका है या गायब कर दिया गया है.
सफेद सोना आज सबके लिए मुनाफे का अच्छा माध्यम बन चुका है। सरकार को राजस्व, ग्रामिणों को रोजगार, पूंजिपतियों को मोटी मलाई काटने का मौका मिल रहा है तो वे क्यों पीछे रहेंगे, ऐसे में पर्यावरण की किसे फिकर. रीमा क्षेत्र में खनन के अलावा भी कुछ अवलोकन दिखे जिनमें सरकारी प्राथमिक शिक्षा, सामुदायिक स्वास्थ्य व्यवस्था प्रमुख है। एक बड़ी खदान के ठीक उपर एक उजड़ा सा प्राथमिक विद्यालय दिखा तो गाॅव के ही एक सेवानिवृृत शिक्षक से पूछ लिया कि उनके गाॅव में सरकारी शिक्षा की क्या स्थिति है ? मासाब ने निराश शब्दों में बस इतना ही कहा कि शिक्षक होंगे तो बच्चे भी आयेंगे स्कूलों में ज्यादातर मासाब लोग तो व्यवस्था में ही लगे रहते हैं. खदान के पास स्कूल में पढ़ रहे बच्चों को शिक्षक ईवीएस के कौशल पढ़ाते हुए या बाल शोध जैसी शिक्षण विधा को समझाते हुए क्या कहते होंगे ? मासूम मनों में खनन से होने वाले दीर्घकालिक प्रभाव कुछ असर छोड़ पाएंगे ? शिक्षा के बाद बात की स्वास्थ्य व्यवस्था पर तो पता चला कि मुख्य आस्पताल तो बागेश्वर में है एक छोटा अस्पताल रीमा के पास भी है लेकिन सुविधा यहां न्यूनतम है। बातचीत जारी थी एक ग्रामीण बीच में बोले जब जिला अस्पताल ही व्यवस्थाओं का रोना रोता है तो ग्रामीण इलाकों की बात क्या करनी. देवभूमि की महानता का बखान करने वाले माननीय कभी देवभूमि के छलनी होते सीने को क्यों नहीं देखते ? इनके बयानों में पर्यावरण के प्रति हिमालय के प्रति संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखती ? रीमा तो एक उदाहरण है देश दुनियां में मुनाफे की बड़ी राजनीति के चलते प्राकृतिक संसाधनों को बेतहाशा दोहन जारी है. और राम जाने कब तक ये अंधा दोहन जारी रहेगा.