Vipin Joshi
काफी अरसे के बाद प्राइम वीडियो में वेब सिरीज दहाड़ देखी। श्रंखला का निर्देशन किया है रीमा कागती और रूचिका ओबेरॉय ने अनुष्का सिन्हा, विजय वर्मा ने ठीक-ठाक अभिनय से श्रृंखला के रिदम को बनाये रखने में खूब मेहनत की है। अधिकांश ऐपीसोड राजस्थान में फिल्माए गए हैं राजस्थान की आंचलिक बोली का स्वाद बनाए रखने की सफल कोशिश निर्देशकों ने की है।
सिनेमा मनोरंजन के साथ सामाजिक कुरितियों पर कटाक्ष करने का बेहतर माध्यम है। व्यावसायिक सिनेमा के दौर में देश-दुनियां के जन मुद्दों को पिरो पाना चुनौतीपूर्ण कार्य है। दहाड़ एक सीरीयल किलर की कहानी है जो अपनी चालाकी और मासूमियत को ढ़ाल बनाकर लड़कियों को शादी के झासे में फंसा कर उनको लूटता है और 29 लड़कियों की हत्या भी कर देता है। सभी ऐपिसोड दृश्य, ध्वनि के सफल संयोजन के साथ आगे बढ़ते हैं। अपराधी कितना ही शातिर क्यों ना हो कानून यदि ईमानदारी से अपना काम करे तो एक दिन जरूर पकड़ा जाता है। वेब सिरीज में अपराधी और पुलिस महकमे का संघर्ष तो चल ही रहा है साथ में समाज के आंतरिक जातीय व धार्मिक गन्ध का रिसाव भी छोटे-छोटे दृश्यो और संवादो के माध्यम से किया गया है। राजस्थान की सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह वेब श्रृंखला एक साथ कई उद्देश्यों को पूर्ण करती दिखती है। आधुनिक इलैक्टा्रनिक मनोरंजन के युग में सिनेमा के कई विकल्प हमारे सामने मौजूद हैं। कई सारे ऐप जो सिनेमा के व्यापार को नई उॅचाई दे रहे हैं। कुछ ऐप ने जनता की नब्ज पकड़ ली है अर्थात आप जो देखना चाहते हैं आपको वहीं दिखाया जाता है। नग्नता परोसने से लेकर गाली गलौज, मां-बहन की ऐसी तैसी करती वेब श्रंखला को समाज ही तो प्रशय दे रहा है। वहीं साफ सुथरी वेब श्रृंखला भी हैं जैसे प्राइम वीडियो पर प्रसारित पंचायत सिरीज ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम स्तर की राजनीति और सामाजिकता के बहाने समाज और व्यवस्थाओं पर कटाक्ष भी किए हैं तो स्वच्छ मनोरजंन के अवसर भी खुले छोड़े हैं। पंचायत की लोकप्रियता का अंदाजा इस संवाद से लगाया जा सकता है – देख रहे हो ना विनोद यह डायलॉग सभी की जुबान पर चढ़ गया था। दहाड़ एक तरह के सामाजिक अंतर्द्वन्द्व को ठीक से परोसने में कामयाब रही है। अनुष्का सिन्हा के साथ विजय वर्मा, गुलशन देवाशीष ने अभिनय से बाधे रखने का अच्छा प्रसास किया है।
भारतीय समाज में अभी भी जातिगत संघर्ष कूट-कूट कर भरा है। सामाजिक विभेद के कई रूप यहां मौजूद हैं। धार्मिक कट्टरता का ग्राफ विगत वर्षो में कम होने की बजाय बढ़ रहा है। इसे बढ़ाने का कार्य विभिन्न राजनैतिक ऐजेंसियां कर रही हैं और विविध प्रकार के ऐजेण्डे इनमें शामिल हैं। ऐसे दौर में साहित्य, फिल्में, थियेटर, लोक विधाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है। समाज के अन्दर सकारात्मक घटनाओं के साथ विभेदपूर्ण और अन्यायपूर्ण घटनाओं को उजागर करने का जिम्मा भी उपरोक्त रचनात्मक माध्यमों का है। इंटरनेट और मोबाइल सिनेमा के दौर में मनोरंजन के बहुत सारे माध्यम या कहें प्लेटफॉर्म हमारे पास चौबीस घण्टा उपलब्ध हैं। ऐसे में हर उपभोक्ता को स्वयं ही तय करना होता है कि वह क्या देखे क्या नहीं। प्रथम दृष्टया ऐसा लग सकता है लेकिन हकीकत कुछ और है। हमारे द्वारा मोबाइल फोन या कम्प्यूटर पर किया गया एक-एक किल्क इंटरनेट के एल्गोरिदम के सहारे हमारी पसंद और नापसंद को तय करता है। रिसर्च की यह सबसे तीव्र तककीन हो सकती है। एक बार आपने कोई प्रोडक्ट सर्च कर लिया तो उसी के आसपास देखने वाले का क्लोन व्यक्तित्व बन जाता है जो उपभोक्ता की पसन्द नापसन्द को अपडेट करते रहता है। ऐसा ही एल्गोरिदम का जादू वेब पोर्टल या ऐप में भी दिख जाता है। एक मूवी देखी तो अगली मूवी की एक कतार आपकी पसन्द के अनुरूप आपके ऐप में सजेशन के रूप में दिखने लगती है।
कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, बॉलीवुड की लगभग सभी फिल्मों में इस संवाद को कई बार अलग-अलग स्थितियों में दर्शाया जाता है। आधुनिक फिल्मों में अपराध के प्रकार भी बदल गए हैं। अब 420 के केस इंटरनेट के जरिए होने लगे हैं। साइबर क्रामइ को पकड़ने के लिए साइबर सुरक्षा की तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे मोबाइल नम्बर को ट्रैक करना, फिंगर प्रिन्ट ट्रैश करना, फॉरेन्सिक की मदद से मेडिकल सांइस का उपयोग कर हत्या या वारदात का समय और सबूत एकत्र करना, स्पाई कैमरा अथवा डा्रेन तकनीक आदि। इन तकनीकों को अच्छा प्रयोग दहाड़ वेब सिरीज में नजर आता है। जब विकल्प हमारे पॉकेट में हैं हमारी पहॅुच में हैं तो चुनाव भी हमारा अपना होना चाहिए। लेकिन शांत मन से सोचिए तो क्या आज विज्ञापन और इंटरनेट के मायावी एल्गोरिदम के जाल में हम किसी प्रोडक्ट को चुनते हैं या उपभोक्ता का मन बनाया जाता है।