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घूमने-फिरने का शौक और नई जगहों में जाकर उसे समझने का जूनून ही यात्रा प्रेमी बनाता है। एक दिन साथियों के साथ हुई अनौपचारिक बात-चीत में मुनस्यारी भ्रमण की योजना बनी। तय योजना के मुताबिक 22 नवम्बर 2015 को हम 7 सदस्य प्रातः 9ः30 बजे गरूड़ से रवाना हुए। सिमार के पास एक ढाबे में चाय-काॅफी की चुस्की लेते हुए भ्रमण के प्रथम दिन की प्लानिंग करते हुए हम करीब 45 मिनट में बागेश्वर पहुॅचे। बागेश्वर का तंग ट्रैफिक पार कर चैकोड़ी पहुॅचे। चैकोड़ी जाना जाता है बेहद खूबसूरत प्राकृतिक नजारों और अच्छी आबोहवा के लिए। यहां से हिमालय दर्शन बहुत विहंगम लगता है। बर्फवारी के बाद चैकोड़ी का नजारा देखने के लिए शैालानी उमड़ पड़ते हैं। इतना बड़ा चैकोड़ी कभी यहां के एक बड़े मालदार सेठ का हुआ करता था। चैकोड़ी पर्यटक विश्राम गृह के सुन्दर परिसर में एक छोटा सा फोटो शेषन करने के बाद हम पहुॅचे उडयारी बैन्ड। गरूड़ से उडयारी बैन्ड की दूरी करीब 65 किमी. है। हमारा पहला पड़ाव था हाट कालीका मंदिर जो कि गंगोलीहाट में अवस्थित है। उडयारी बैन्ड से करीब 30 किमी. की दूरी और तय करनी थी। बीच में बेरीनाग ब्लाॅक है, एक ठीक-ठाक सी बाजार यहां हैं। पुराने उजड चुके चाय बागानों को देखकर कोफ्त भी हुई कि छोटे-छोटे कस्बे भी शहरी करण की ज़द में आकर कंकरीट के जंगलों में कैसे तब्दील होते जा रहे हैं? बेरीनाग से गुजरते हुए बाज के पेड़ों की हवा लेते हुए जैसे ही राईआगर पार किया तो खराब सड़क के झटकों ने सफर का सारा मजा किरकिरा कर दिया। रास्ते में किसी राहगीर ने बताया कि इस रोड का ठेकेदार सारा बजट लेकर गायब हो गया, उसका अता-पता सब फर्जी था। 5 साल से यह सड़क जस की तस मरणासन्न स्थिति में पड़ी है। सरकारी विकास के दावों की पोल इस रूट पर खुलती दिखी।
बाधाएं कहां रोक पाई हैं आगे बढ़ने वालों को, हमें न रूकना था और न हम रूके। थकाउ सड़क से निजात तो कहां मिलनी थी। हम पहुॅचे गंगोलीहाट के प्रसिद्ध शक्ति पीठ मंदिर हाटकालीका में। कुमाॅउ रेजीमैण्ट ने इस मंदिर के परिसर को बनाया है। सेना सहित स्थानीय जनों में भी हाटकालीका मंदिर के प्रति खूब मान्यता है। एक समय था जब यहां प्रति दिन सैकड़ों बकरे बली के रूप में कटते थे। अब यहां बली नहीं होती मंदिर से दूर बली होती है और मंदिर परिसर से बाहर लोग उसे पका कर खा जाते हैं। परम्पराएं अपना मूल स्वरूप नहीं बदलती लेकिन समय के साथ उनमे कुछ छिटपुट परिवर्तन होते रहते हैं जो किसी समाज के जिन्दा होने का प्रमाण भी है। हाटकालीका मंदिर में सुरक्षा की दृष्टि से मुख्य मंदिर के अन्दर एक गेट लगा दिया है अब दर्शनार्थी मूर्ती को छू नहीं सकता। शक्ति पीठ पर स्वयं अपने हाथों से पुष्पांजली नहीं दे सकता है। अक्षत, पिठावा, रौली नहीं लगा सकता। पुजारी सारी औपचारिकता पूरी कर गेट के बाहर ही दर्शनार्थी को प्रसाद देकर चलता कर देता है। यानी भगवान को जी भर देखने की तमन्ना दिल में लिए भक्तगण बाहर आ जाते हैं। जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती जाती है प्रभु दर्शन का समय घटता चला जाता है। बद्रीनाथ, केदारनाथ, वैष्णों देवी में तो प्रभु दर्शन की समय सीमा सैकेन्डो में हो जाती है। यानी पलक झपकी कि आगे बढ़ो। एक किस्सा बद्रीनाथ का याद आ गया है, अपने दोस्तों के साथ वर्ष 2010 में बद्रीनाथ जाने का मौका मिला। अचानक ही मित्रगण पहॅुचे और मैं हो लिया उनके साथ, ग्वालदम पहुॅचने के बाद पता लगा कि बद्रीनाथ जाना है। अरे! एक जोड़ी कपड़े बदन में और दो सौ साठ रूपये जेब में थे। चलो, घुम्मकड़ी का जुनून था मुझे तो हो लिया शामिल। बद्रीनाथ तीर्थ नगरी की जगह कोई चमचमाता शहर जैसा लगा। एक दोस्त मसूरी का वहां मिल गया वह होटल में काम करता है, सस्ते में पर कमरा मिल गया। सुबह बद्रीविशाल जी के दर्शनों के लिए लाइन पर लगा था। वहीं पास में पूजा की थालियां लगी थी। पाॅच सौ से दो लाख या उससे भी ज्यादा मंहगी थालियां। जिसकी थाली जितनी भारी वह भगवान के उतने करीब, वह भगवान को उतनी देर तक निहार सकता है। बाकायदा अन्दर मूर्ती के सामने बैठ कर। मैंने भगवान जी की ओर सहमी दृष्टि से देखा और जेब में पड़े पचास के नोट को निकाला। पीछे से भीड़ धकिया रही थी, मंदिर के गेट से ही अन्दर को झांका भगवान कहां दिखते, चुपके से नोट को चैखट पर छुवाया और फटा-फट आगे बढ़ गया। पुजारी ने घूर कर देखा। मैंने कहा चलो बच गया नोट। क्या पता मंदिर से वापस मेरी जेब में आया यह नोट कुछ लक बदल दे। इसी विश्वास के साथ उस नोट को मैंने कई महिनों तक बचाये रखा लेकिन कुछ हुआ नहीं। एक दिन खर्च कर दिया। तो जो भगवान सृष्टि नियंता है उसको हम घूस देते हैं। कि प्रभु मेरा भला करना, ऐसा कर देना, बदले में ये करूंगा, वो करूंगा आदि। हाटकालिका मंदिर की एक मान्यता आज तक राज बनी है। मंदिर का पुजारी रात को मूर्ती के पीछे रखे तखत पर बिस्तर लगाता है। मंदिर को बंद किया जाता है। सुबह उस बिस्तर पर सिलवटें होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने विश्राम किया हो। लेकिन बंद मंदिर में उस कमरे में कौन गया? जबकी आने जाने का कोई और रास्ता भी नहीं यह एक राज है जो फिलहाल समझ से परे है।इसे राज ही रहने देते हैं।
प्रसाद आदी लेने के बाद हम निकल पड़े पाताल भुवनेश्वर गुफा की ओर गंगोली हाट से करीब 12 किमी की दूरी पर पाताल गुफा है। यह क्षेत्र बहुत ठण्डा है। देवदार और बांज के वृक्षो से अटा जंगल यहां की सुन्दरता में इजाफा करते हैं। पाताल भुवनेश्वर गुफा का निर्माण द्वापर युग में हुआ था ऐसी जन मान्यता है। मानस खण्ड का उदाहरण यहां के गाइड देते हैं। आठवीं सदी में आदि गुरू शंकराचार्य ने पाताल गुफा में कुछ मूर्तियां स्थापित करवाई। पाताल गुफा में प्रवेश करने का समय शाम 5 बजे तक ही होता है। शाम ढलने को तैयार थी और जैसे ही हम पहॅुचे मेरे गाॅव के परिचित गोस्वामी जी जो वहीं कार्यरत हैं मिल गये उनसे दुआ सलाम हुई और एक गाइड हमें ले चला गुफा के अति संकरे रास्ते से पाताल की ओर। सच में एक नई दुनिया थी। संकरा रास्ता था, जंजीरें लगी थी बस उनको पकड़ कर फिसलते हुए एक अनजान सी दुनियां में प्रवेश कर रहे थे कभी सिर गुफा की दीवार से टकराता तो कभी पांव फिसलता लेकिन जंजीर को पकड़े रखना था। डर भी लगता लेकिन क्या करते देखना भी था। करीब 50 मीटर नीचे उतरने के बाद गुफा का आहाता दिखता है। ऐसा लगता है मानो किसी महल में पहॅुच गये हो। संकरे से रास्ते के बाद जमीन के अन्दर एक नई दुनियां नजर आती है। गुफा के अन्दर मूर्तियां, कुछ चिन्ह, उस पर गाइड की गंभीर और आत्मविश्वास से लबरेज आवाज। यह है महाकाल की गुफा, यहां पर विष्णु जी ने तप किया था, यह जिस पर आप चल रहे हैं शेषनाग की पीठ है। मानने वाले तो आंखे मूदें ऐसा महसूस करते हैं जैसे सबकुछ सच हो। कौन जाने क्या सच है ? आस्था का मसला है। यहां नीचे गुफा में फिसलन बहुत है। कुछ भी हो एक आश्चर्यजनक गुफा है, मजेदार है, पौराणिक है। देखना बनता है।
गुफा से निकले तो फिर से अफरा-तफरी की जल्दी बाजी की एक अजीब सी दुनियां में खुद को महसूस किया। दो मिनट में सारे आस्थामयी भाव फुर्र हो चले। अब अगला पड़ाव था, पुनः उडयारी बैण्ड रात्रि विश्राम यहां होना था। और अगले दिन कोटगाड़ी मंदिर दर्शन के बाद शाम तक घर में आवत लगानी थी। कोटगाड़ी मंदिर भी शक्ति पीठ है। बहुत मान्यता है यहां की। अब सड़क पहुॅच गयी है। लोगों ने मंदिर के आसपास प्रसाद वाली दुकानें खोल ली हैं। कुछ अन्य दुकानें यहां बन गई हैं। रोजगार से जुड़ी है स्थानीय जनता। और यात्रियों के लिए पैदल चलना कम हुआ है। भारी संख्या में बली यहां होती हैं। लोगों का अपना समाज विज्ञान है मुद्दों को समझने का जीने का तो वह उसके आधार पर जी रहे हैं। मंन्दिर में कुछ समय बिताया। एक दशक पुरानी यादों को अपने आस-पास महसूस किया। श्रद्धा परिवार नाम से छह युवा साथी कुमाॅउ के तीन जनपदों में जन आधारित स्कूल चला रहे थे। उस टीम का मैं भी हिस्सा था। कुछ मदद सिद्ध संस्थान से पवन कुमार गुप्ता जी करते थे। कोटगाड़ी गाॅव में भी एक स्कूल संचालित होता था, दो शिक्षक गाॅव से और एक हमारी टीम से। साल में दो बार इन शिक्षकों की कार्यशाला होती थी। गाॅव वाले अपनी श्रृद्धा से अनाज, सब्जी आदि स्कूल को देते जो शिक्षक के लिए एक मदद स्वरूप में होता। फीस से जो पैसा जमा होता उसको तीनों शिक्षकों में बाट दिया जाता। यानी पूर्ण रूप से समुदाय आधारित शिक्षण कार्य का सुख ही और था। सारे चेहरे याद आये कैप्टन साब, कमलेश, खजान, गोपाल, संदीप, गिरीश, रविन्द्र, अनिल, श्याम और भी बहुत से लोग जिनके नाम याद नहीं हैं पर सीन सब याद हैं। मंदिर दर्शन के बाद हम निकल पड़े घर की ओर। यात्रा मजेदार रही। प्रतिव्यक्ति पच्चीस सौ रूपये का बजट बैठा, यानी कम खर्च में एक बेहतरीन यात्रा और सुखद यादगार अनुभवों से रूबरू होने का यह मौका शिक्षक मित्रों की वजह से मिला। यात्रा का अगला राउण्ड शीघ्र ही प्लान किया जायेगा…..। तब कुछ और मजेदार किस्सों और अनुभवों के साथ फिर हाजिर हो जाउंगा। इस यात्रा के संयोजक थे नीरज कुमार पन्त जी कोविड ने उन्हें हमसे छीन लिया. हमारे दिलों में हमेशा नीरज कुमार पन्त जी की यादें रहँगी .
विपिन जोशी