लखनी गाॅव से कोक स्टूडियो : कमला देवी से एक मुलाकात


Vipin Joshi – swarswatantra.in
उत्तराखण्ड, लखनी गाॅव से कोक स्टूडियो मुंबई तक का संघर्ष भरा सफर किसी लोक कलाकार के लिए बड़ी कामयाबी है। बागेश्वर जपनद के गरूड़ विकास खण्ड से 12 किमी की दूरी पर स्थित है लखनी गाॅव। सड़क मार्ग से समीप कमला देवी का आवास है। कमला देवी ने शायद ही कभी सोचा होगा कि उनको लोक विधा एक दिन दुनियां के सर्वश्रेष्ठ मंच तक पहुंचायेगी। मार्च 2024 में अपने स्वर स्वतंत्र यूटयूब मंच के लिए मैंने कमला देवी का एक साक्षात्कार किया था। कमला देवी कहती है – संघर्ष चल ही रहा है, गायकी के साथ घर निर्माण का संघर्ष भी जारी है, घर टूटने को तैयार है दिवारों में दरारें हैं, घर की फाइल लगा तो रखी है लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है। कमला देवी को प्रधान मंत्री आवास योजना का लाभ भी अभी तक नहीं मिल पाया है। कमला देवी अपने परिवार के साथ लखनी गाॅव में बड़े सपनो के साथ जी रही हैं। कैसे परम्परागत गायकी का शौक उनको मंचीय प्रदर्शन की ओर ले गया इसकी भी एक मजेदार कहानी है।
साक्षात्कार के दौरान भावुक होते हुए कमला देवी बताती हैं कि हल्द्वानी से गरूड़ की ओर आते हुए भीमताल में एक छोटे से रैस्टोरेंट में चाय पानी पीते हुए रैंस्टोरेंट के संचालक ने कमला देवी को मंच पर गाने का सुझाव दिया वे खुद भी लोक गायन विधा के जानकार थे। बस ये बात कमला देवी को स्पर्श कर गई। तब से अब तक कमला देवी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे बताती हैं कि परम्परागत गायन शैली उनको उनके पिता से विरासत में मिली है। कमला बताती हैं कि पिता जी ने कहा था कि उनके बाद मुझे ही इस गायन विधा को आगे ले जाना है। आज जहां भी हॅू पिता जी से सीखी विधा के कारण हूॅ। कोई स्थानीय मेला हो, राज्य स्तरीय कोई आयोजन हो, उत्तरायणी मेला हो या दूरदर्शन के शो कमला देवी हर मंच पर अपनी गायकी से खूब प्रशंसा बटोर चुकी है। लेकिन प्रशंसाओं से तो घर नहीं चलता। गुजर बसर के लिए आर्थिकी का मजबूत होना भी जरूरी है। लेकिन यदि संसाधनों से वंचित कोई कलाकार इतना संघर्ष कर रहा है तो सरकार की सांस्कृतिक नीतियों पर सवाल उठना जायज है।
आश्चर्य तो तब हुआ जब कमला देवी ने बताया कि लोकल मेलों में उनको कार्यक्रम के बुलाया जाता है लेकिन उनका पेमेंट उनको या तो मिलता नहीं है या फिर हाथ पांव जोड़ने के बाद मिलता है। मेला हो या कोई सांस्कृतिक आयोजन उनके लिए स्टार कलाकार प्राथमिक हो जाते हैं और स्थानीय लोक कलाकारों की वैल्यू कम आंकी जाती है। कोट भ्रामरी मेला और कत्यूर महोत्सव के ऐसे ही कुछ अनुभव कमला देवी ने अपने साक्षात्कार में आॅफ द रिकाॅर्ड भी बताये। ऐसे में कैसे किसी लोक कलाकार को बढ़ावा मिलेगा जबकी संस्कृति और इतिहास के साथ लोक जीवन को बढ़ावा देने के लिए ही मेले और अन्य स्थानीय आयोजन आयोजित होते हैं।
चाय और गुण के साथ कमला देवी ने कुछ पारंपरिक गीत भी सुनाए। पार का भिड़ा को छै घस्यारी मालु ओ तू मालू नि काटा, मालु काटिया का पाप लागियालो। यह एक पारंपरिक गीत है न्योली की तर्ज पर भी इसे गाते हैं। इस गीत में मालु घस्यारी से अपील की गई है कि मालू के पेड़ को मत काटना पाप लगेगा। सीधे और सरल शब्दों में पर्यावरण और जंगलों को संरक्षित रखने का संदेश देता यह गीत कमला देवी के मधुर कण्ठ से और जीवंत हो जाता है।
राजुला मालूशाही की तर्ज पर कमला देवी ने – पार डाना बुरूशि फुली रे मि जो कुछि मेरी हिरू ऐई रे। सुनाया। कमला देवी राजुला मालुशाही, चैती, न्योली, जागर, छपेली, झोड़ा, चाॅचरी, भगनौल आदि विधाओं में पारंगत है। परंपरागत विधि से अर्जित किया गया उनका लोक ज्ञान आज वैश्विक मंच पर धूम मचाने के लिए तैयार है। कोक स्टूडियो ने पहल की और उत्तराखण्ड से पहली बार लोक गायकी के क्षेत्र में गरूड़ लखनी क्षेत्र की कमला देवी को मौका दिया। यह उत्तराखण्ड के परंपरागत लोक कलाकारों के लिए एक अच्छी खबर भी है। उम्मीद करते हैं जल्दी ही प्रशासन कमला देवी को आवास दिलाने में यथासंभव सहायता करेगा।

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