पंत विथिका में शराब की संस्कृति पर साहित्यिक चर्चा.
उत्तराखंड के कौसानी में हाल ही में जो कुछ हुआ, उसने साहित्यप्रेमियों और संस्कृति के रखवालों को झकझोर कर रख दिया है. प्रकृति के कवि, युगवाणी के शिल्पी और मानवतावाद के पुरोधा सुमित्रानंदन पंत की स्मृति में बनी पंत विथिका, जहां शब्दों में सौंदर्य, संवेदना और शांति का वास होता है, वहां शराब की दुकान के समर्थन में एक बैठक का आयोजन, न केवल अप्रत्याशित है, बल्कि चिंताजनक और शर्मनाक भी है.
सुमित्रानंदन पंत न केवल छायावादी युग के स्तंभ थे, बल्कि वे आधुनिक भारत की सांस्कृतिक आत्मा के प्रतीक रहे. कौसानी, जो उनकी जन्मभूमि है, वर्षों से साहित्यप्रेमियों और पर्यटकों के लिए एक तीर्थ समान रहा है. ऐसे स्थान पर किसी वाणिज्यिक और विवादित विषय जैसे शराब की दुकान खोलने के पक्ष में बैठक का होना, एक प्रकार से उस पवित्र स्थल की आत्मा को आहत करने जैसा ही है. शराब का मुद्दा सामाजिक, स्वास्थ्य और नैतिक दृष्टिकोण से हमेशा संवेदनशील रहा है। जिस स्थल पर राष्ट्र और प्रकृति को समर्पित कविताएं गूंजी हों, वहां ऐसी चर्चा का होना न केवल अनुचित है, बल्कि युवाओं के लिए भी गलत संदेश देता है. पंतजी की कविता में जिस निर्मलता और आत्मिक शुद्धता की बात थी, उसके विपरित शराब की दुकान खोले जाने की प्रबल भावना और ललक इस बैठक के लिए सहमति प्रदान करने वाले पंत विथिका के संरक्षक को जरूर दिखाई दे रही होगी तभी तो उन्होंने आनन—फानन विथिका के आंगन के साथ ही भीतरी मुख्य कक्ष भी तुरंत ही खोल दिया. अब पंत विथिका के संरक्षक के सामने भी तो किंकर्तव्य विमूढ़ वाली स्थिति हो गई होगी.
दबी आवाज में कुछ लोगों का कहना है कि पर्यटन और विकास का मार्ग स्वच्छ संस्कृति से होकर गुजरता है, न कि नशे के प्रोत्साहन से. पंत विथिका जैसे स्थल का प्रयोग यदि सांस्कृतिक जागरूकता, साहित्यिक गोष्ठियों और शिक्षा के उद्देश्यों के बजाय शराब की दुकान के समर्थन जैसे विषयों के लिए होने लगे, तो यह पूरे समाज के लिए एक चेतावनी के साथ ही कलंक हुआ.
क्या कभी इन सवालों के उत्तर मिल पाएंगे. क्या यह निर्णय स्थान की गरिमा और उसकी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान की अवहेलना नहीं है? क्या हम अपने साहित्यिक पूर्वजों के योगदान को इस तरह तुच्छ मुद्दों में घसीट सकते हैं? क्या विकास की परिभाषा अब सिर्फ राजस्व और वाणिज्य बनकर रह गई है? कौसानी क्षेत्र में अवैध शराब किसके संरक्षण में फल फूल रहा होगा? वैसे सवाल तो ये भी उठता है कि, इस पर खबरनवीसों की नजर क्योंकर चूक गई होगी..??
आज जब हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, तब यह आवश्यक है कि हम अपनी जड़ों को न भूलें. सुमित्रानंदन पंत केवल एक कवि नहीं थे, वे एक युगद्रष्टा थे, जिनकी संवेदना आज भी कौसानी की हवाओं में जीवित है. उनका अपमान, केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरी सांस्कृतिक चेतना का अपमान है.
कौसानी, जहां सूरज की पहली किरण हिमालय की चोटियों पर पड़ती है, वहीं कहीं कोने में शराब की अवैध नदी भी बहती है. और हां, ये नदी बिना बारिश के भी कभी सूखती नहीं है.
माना जाता है कि यहां की जलवायु अवैध शराब बेचने के लिए बहुत अनुकूल है. पर असली कमाल तो उस छाया का है जो इसे संरक्षण देती है. अब वो छाया कौन है? कोई पेड़ नहीं, साहब… वो तो कुछ छायादार नीति नियंता वाले बड़े लोग हुऐ.
पुलिस का जबाव, यहां सब ठीक है.
प्रशासन से पूछो तो जबाव मिलेगा, ‘जांच करेंगे’
जनप्रतिनिधि से पूछो तो वो कहे, ‘हमें विश्वास है कि सब ठीक चल रहा है.’
और शराब माफिया से पूछो तो…?
वो तो कहे, ‘हमारे ग्राहक संतुष्ट हैं, धन्यवाद.’
लोग कहते हैं कौसानी स्वर्ग है. हाँ, बस यहां देवता की जगह शराब ने लेनी शुरू कर दी है. अब कोई शिकायत करे तो वही पुरानी बात, ‘शराब पीना अपराध नहीं, अवैध बेचना अपराध है. और वो तो…’ऊपर’ वाले देख ही लेंगे.’
अफसोस..! नीति-नियंताओं के कानों में सिर्फ शराब समर्थक और शराबियों की मधुर आवाजें ही गूंजायमान हो रही हैं. जनता की आवाजें तो हमेशा से ही नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह ही हुई जो कभी भी नीति-नियंताओं के कानों तक पहुंच ही नही पाती हैं. वैसे भी उन्हें ये बेसूरे राग तो बिल्कुल भी पसंद नही हुए.
पत्रकार केशव भट्ट की रिपोर्ट
