बढ़ते आवारा पशु

विपिन जोशी
गरुड़ में आवारा पशुओं के खिलाफ बढ़ता आक्रोश, संवेदनाओं का हनन और प्रशासन की चुप्पी ।
गरुड़ में आवारा पशुओं पर लोगों का गुस्सा अब थमने का नाम नहीं ले रहा। मानवीय संवेदनाओं का हर दिन मखौल उड़ रहा है। एक तरफ गाय को माता का दर्जा देकर गगरास खिलाने की परंपरा निभाई जाती है, धार्मिक आयोजनों में गौदान से पुण्य कमाया जाता है और वैतरणी पार करने का विश्वास जताया जाता है, वहीं दूसरी ओर जब वही गाय दूध देना बंद कर देती है, तो उसे सड़कों पर बेसहारा छोड़ दिया जाता है। यह कैसी धार्मिकता है? क्या यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा नहीं ?
महिलाओं का आंदोलन और गौ सेवा सदन पर दबाव ,आवारा मवेशियों के खिलाफ आक्रोश अब सड़कों पर उतर आया है। बैजनाथ, गागरीगोल और भकुनखोला से आई महिलाओं का एक दल पहले बहुउद्देशीय शिविर गरुड़ पहुंचा और फिर नारेबाजी करते हुए गौ सेवा सदन तक मार्च किया। वहां उन्होंने आवारा मवेशियों को फिर से गौ सदन में बांध दिया। पिछले दो महीनों से ये महिलाएं कभी तहसील तो कभी गौ सेवा सदन में मवेशियों को छोड़कर अपना विरोध जता रही हैं। गौ सेवा सदन के संचालक विनोद कांडपाल का कहना है कि उनके पास अब अतिरिक्त मवेशियों के लिए जगह नहीं बची। वर्तमान में 130 मवेशी पहले से मौजूद हैं, जिसके चलते स्थिति अनियंत्रित हो रही है। महिलाएं अपनी एक सूत्रीय मांग पर अडिग हैं। उनका कहना है कि गौ सदन को दूसरी जगह स्थानांतरित किया जाए, ताकि अधिक मवेशियों को आश्रय मिल सके। यह मांग न केवल जायज है, बल्कि गंभीर हालात को देखते हुए तत्काल कार्रवाई की जरूरत को भी उजागर करती है।
सरकारी योजना लंबित
जिला पशु अधिकारी के अनुसार, गरुड़ के जैसर में 6 नाली भूमि पर 58 लाख 50 हजार रुपये की लागत से 150 मवेशियों के लिए एक गौशाला बनाने की योजना स्वीकृत हुई है। लेकिन यह योजना अभी शासन स्तर पर अटकी पड़ी है और निर्माण कार्य शुरू नहीं हो सका है। कागजों में भले ही योजना तैयार हो, लेकिन जमीनी हकीकत में कोई प्रगति नजर नहीं आती।
प्रशासन की खामोशी और चुनावी चुनौती।
आवारा पशुओं की समस्या दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है, लेकिन प्रशासन की चुप्पी समझ से परे है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव सिर पर हैं, और यह मुद्दा कहीं नेताओं के लिए गले की हड्डी न बन जाए। जनता का आक्रोश अब सड़कों पर है, और यदि इसे अनदेखा किया गया तो यह राजनीतिक परिणामों को भी प्रभावित कर सकता है।
गरुड़ में यह विडंबना न केवल सामाजिक और धार्मिक मूल्यों पर सवाल उठाती है, बल्कि प्रशासनिक उदासीनता को भी उजागर करती है। जरूरत है एक ठोस और त्वरित समाधान की, ताकि न गाय माता सड़कों पर भटकने को मजबूर हो, न ही जनता को अपने हक के लिए बार-बार सड़कों पर उतरना पड़े। क्या यह संवेदनशीलता और जिम्मेदारी का समय नहीं है?

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